‘खुदा जब हुस्न देता है, नजाकत आ ही जाती है’
नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि ‘खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है।’ इसे अगर राजनीतिक नजरिये से देखें तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ‘बस एक बार सत्ता मिल जाए तो सियासत आ ही जाती है।’ दरअसल सियासत केवल सत्ता हासिल करने के लिये ही नहीं बल्कि सत्ता को संभालने के लिये भी करनी पड़ती है और हमेशा से सत्ता को संभालने का मूलमंत्र रहा है ‘फूट डालो और राज करो।’ हालांकि सियासत की यह रणनीति सतही तौर पर तो उचित व नैतिक नहीं दिखती है लेकिन बुरी तरह उलझे हुए मामलों को सुलझाने व निपटाने के लिये कई दफा इसे अमल में लाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही उपलब्ध नहीं होता है। लिहाजा सत्ता की सिरदर्दियों से राहत पाने के लिये इस पर अमल करना आवश्यक हो जाता है। वैसे भी सत्ता में आने के बाद सियासत का यह हुनर सभी राजनीतिक दल सीख ही जाते हैं। अब तक तो यही देखा गया है कि ऊपरवाला जिसे सत्ता में बिठाता है उसे सियासत के इस हुनर से भी नवाज ही देता है। तभी तो इन दिनों केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शीर्ष रणनीतिकार भी ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति का सटीक इस्तेमाल करने के मामले में बेहद प्रवीण व सिद्धहस्त दिखाई पड़ रहे हैं। मिसाल के तौर पर गुजरात से उठी पटेल आरक्षण की आंधी को शांत करते हुए राजनीतिक क्षितिज पर अचानक धूमकेतु की मानिंद उभरे हार्दिक पटेल को नेपथ्य में भेजकर इस सिरदर्दी को सिरे से समाप्त करने से लेकर पूर्व सैनिकों के लिये एक समान पेंशन नीति लागू करने की दशकों पुरानी उलझन को सुलझाने तक के मामले में जिस खामोशी व खूबसूरती के साथ ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति को अंजाम दिया गया है वह वाकई बेहद दिलचस्प है। इस रणनीति को अमल में लाते हुए हार्दिक पटेल की तो ऐसी हालत कर दी गयी है कि उनके द्वारा गठित संगठन ही अब उनको अपना नेता मानने के लिये तैयार नहीं दिख रहा है। खेल ऐसा हुआ कि पहले तो हार्दिक के भरोसेमंद सहयोगियों के काफी बड़े धड़े ने उनके नेतृत्व को मानने से इनकार करते हुए पाटीदार अमानत आंदोलन संगठन से रिश्ता तोड़कर अपनी अलग संस्था गठित कर ली और बाद में रही सही कसर संगठन के भीतर हार्दिक के खिलाफ उठी विद्रोह की लहर ने पूरी कर दी जिसके बाद संगठन की बागडोर छोड़ने की पेशकश करके हार्दिक लगातार हाशिये की ओर बढ़ने के लिये मजबूर हो गये हैं। हालांकि स्वाभाविक तौर पर हार्दिक को हाशिये पर भेजने के लिये अमल में लायी गयी इन तिकड़मों का सूत्रधार होने से भाजपा साफ इनकार कर रही है लेकिन हार्दिक के शुभचिंतकों का साफ तौर पर कहना है कि पटेल आरक्षण के आंदोलन की कमर तोड़ने व पटेल समुदाय को विभिन्न खेमों में बांट देने की पूरी साजिश को भाजपा ने ही अंजाम दिया है। वैसे भी उस सेक्स सीडी के सार्वजनिक होने के बाद हार्दिक की साख बुरी तरह प्रभावित हुई है जिसमें तीन युवक एक विदेशी काॅलगर्ल के साथ होटल में ऐश करते हुए दिख रहे हैं और चर्चा है कि उसमें हार्दिक भी शामिल हैं। खैर, ऐसा ही मामला ‘वन रैंक वन पेंशन’ के मसले को सुलझाने के क्रम में भी दिखा जिसमें एक बार तो सरकार यह मान गयी थी कि पेंशन का निर्धारण हर तीन साल के अंतराल में किया जाएगा लेकिन वह एक समान पेंशन नीति का लाभ स्वेच्छा से सेवानिवृति लेनेवाले पूर्व सैनिकों को नहीं देना चाहती थी। ऐसे में पूर्व सैनिकों के बीच फूट पड़ना लाजिमी ही था लिहाजा लंबी जिरह के बाद आखिरकार तय हुआ कि पेंशन का पुनरीक्षण पांच साल के अंतराल पर किया जाएगा और इसका लाभ स्वैच्छिक सेवानिवृति लेनेवालों को भी दिया जाएगा। इस फैसले की घोषणा के बाद पूर्वसैनिकों का संगठन अब दो-फाड़ दिख रहा है जिसमें काफी बड़ा धड़ा तो सरकार से संतुष्ट हो गया है जबकि कुछ लोग अभी तक आंदोलन पर डटे हुए हैं। वैसे भी इस आंदोलन में यह फूट नहीं पड़ती तो पूर्वसैनिक हर साल पेंशन का पुनरीक्षण किये जाने की मांग पर दशकों से डटे हुए थे जिसे स्वीकार करना किसी भी सरकार के लिये संभव नहीं हो पाया था। हालांकि फूट डालकर अपना उल्लू सीधा करने की रणनीति का मुजाहिरा पहले जदयू में जीतनराम मांझी को फोड़कर किया गया जिसके कारण धर्मनिरपेक्ष महामोर्चा को बिहार में महादलित मतदाताओं का समर्थन मिलना बेहद मुश्किल हो गया और बाद में मांझी को ही आगे करके राजग के सभी सहयोगियों को इस कदर लड़ा-भिड़ा दिया गया कि कल तक भाजपा से 141 सीटों की मांग कर रहे लोजपा, रालोसपा व हम अब जितना मिल जाये उसी में खुशी व्यक्त करने के लिये विवश हो गये हैं। इसी प्रकार लग तो यही रहा है कि भाजपा ने फूट डालने की कूटनीति अमल में लाकर ही संघ परिवार के अपने उन सहोदरों की चोंच पर भी ताला जड़ दिया है जो मूल वैचारिक सिद्धांतों से संगठन व सरकार के कथित स्खलन से आहत बताये जा रहे हैं। खैर, फूट डालकर राज करने की रणनीति की सटीकता व मारकता तो हमेशा से असंदिग्ध रही है लेकिन इसका प्रयोग करने के क्रम में यह बात अवश्य याद रखी जानी चाहिये कि हर क्षेत्र में सिर्फ इसी रणनीति पर निर्भरता के नतीजे में कहीं अपनी पूरी विश्वसनीयता ही संदिग्ध ना हो जाये। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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