सोमवार, 21 सितंबर 2015

‘...... और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं’

नवकांत ठाकुर
‘जाहिदे तंग नजर ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं।’ वाकई इन दिनों आॅल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की हालत ऐसी ही है। कल तक वे सियासी धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े झंडाबरदार माने जाते थे। उनका समर्थन ही किसी के लिये भी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र हुआ करता था। उन्होंने भी हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ जमकर जहर उगलने का कोई मौका कभी हाथ से जाने नहीं दिया। कांग्रेसनीत संप्रग के साथ उनकी करीबी हमेशा बरकरार रही और वे हर उस खेमे के साथ हमेशा जुड़े रहे जिसने भाजपा के विरोध में मोर्चा खोलने की पहल की हो। लेकिन कहते हैं कि वक्त बदलते देर नहीं लगती है। तभी तो आज आलम यह है कि उनकी निजी धर्मनिरपेक्षता ही खतरे में दिख रही है। हिन्दी पट्टी की कोई भी पार्टी यह मानने के लिये तैयार ही नहीं है कि ओवैसी धर्मनिरपेक्ष हैं या धर्मनिरपेक्षता की सियासत करते हैं। सबकी नजर में इन दिनों ये उतने ही सांप्रदायिक बन गये हैं जितनी बाबरी की शहादत के दिनों से लेकर गुजरात में हुए दंगे के दौरान ही नहीं बल्कि काफी हद तक हालिया दिनों तक भी भाजपा हुआ करती थी। हालांकि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर मुसलमानों का सबसे बड़ा खैर-ख्वाह होने का दम भरनेवाले कई राजनीतिक दलों की नजर में भाजपा आज भी उतनी ही सांप्रदायिक है जितना इन दिनों ओवैसी को बताया जा रहा है। लेकिन इसे ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे का करिश्मा कहें या खाड़ी देश जाकर मोदी द्वारा मक्का मस्जिद में दर्ज करायी गयी मौजूदगी। इन दिनों भाजपा को जमीनी स्तर पर पहले जैसा कट्टर हिन्दुत्ववादी साबित कर पाना काफी मुश्किल हो चला है। हालांकि इसकी एक वजह लोजपा सरीखे ऐसे दलों का राजग के साथ जुड़ना भी है जिसने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग पर अड़े रहकर बिहार की सत्ता को अपने हाथों में लेने का सुनहरा मौका गंवा दिया था। जम्मू कश्मीर में सत्ता के लिये पीडीपी को गले लगाने की पहल, आरएसएस द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति खुलकर किया जा रहा प्रेम प्रदर्शन अथवा केन्द्र की विभिन्न योजनाओं का अधिकतम लाभ मुस्लिम समुदाय को मुहैया कराने का प्रयास। वजह चाहे जो भी, लेकिन हकीकत यही है कि इन दिनों भाजपा को राजनीतिक अछूत बताना या उस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ना अब पहले की तरह कतई आसान नहीं रह गया है। साथ ही इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमानों के मन में अर्से से समाया हुआ भाजपा का भय अब लगातार कमजोर पड़ता दिख रहा है। लिहाजा मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अपने साथ जोड़े रखने की रणनीति की कामयाबी से राजनीतिक दलों का भरोसा काफी हद तक हिल चुका है। लेकिन एक सच यह भी है कि आज भी मुस्लिम मतदाताओं का भाजपा पर इतना भरोसा नहीं जमा है कि वे उसके पक्ष में मतदान करने की पहल कर सकें। यही वजह है कि इन दिनों धर्मनिरपेक्षतावादी दलों द्वारा प्रयोग के तौर पर अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति अपनाने की पहल की गयी है। बिहार में धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे का गठन भी इसी प्रयोग के तहत हुआ है और यूपी में सपा-बसपा की एकजुटता का शगूफा भी इसी प्रयोग की नींव डालने के लिये छोड़ा गया था। लेकिन मसला यह है कि अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति को जमीन पर आजमाने की पूरी योजना में ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का फच्चर फंस गया है। सच तो यही है कि हिन्दी पट्टी के अल्पसंख्यक समुदाय का नेतृत्व पूरी तरह गैर-मुस्लिमों के हाथों में ही सिमटा हुआ है जिन्होंने बकौल ओवैसी, मुस्लिम समुदाय का केवल वोटबैंक के तौर पर ही इस्तेमाल किया है वर्ना अगर इस वर्ग के हित में जरा भी काम किया गया होता तो सामाजिक तौर पर आज भी इनकी इतनी बुरी गत नहीं बनी होती। यानि मुसलमानों के तमाम स्थापित मसीहाओं की नीति व नीयत के खिलाफ अब ओवैसी ने जंग छेड़ दी है। जाहिर है कि इस जंग का सीधा नुकसान उन धर्मनिरपेक्ष दलों को ही होगा जिन्होंने समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए मुसलमानों के समर्थन से अपनी सियासी साख कायम की हुई है। जबकि इसका फायदा सीधे तौर पर भगवा खेमे को ही मिलेगा जो मुस्लिम वोटबैंक के बिखराव को अपनी जीत की गारंटी मान रहा है। ऐसे में लालू यादव सरीखे मुसलमानों के मसीहा ने अब ओवैसी को भाजपा के बराबर का कट्टर सांप्रदायिक बताना आरंभ कर दिया है जिसकी तरक्की से देश में धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद कमजोर हो रही है। यहां तक कि कुछ धर्मनिरपेक्षतावादी तो ओवैसी को भाजपा का वोटकटवा एजेंट बताने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मानें तो ओवैसी सरीखा हिन्दूविरोधी नेता भाजपा के भले का कोई काम करेगा ऐसा सोचना भी मूर्खतापूर्ण ही है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब ओवैसी ना इधर के बचे हैं ना उधर के रहे हैं। हालांकि कल तक मुसलमानों के समर्थन को ही धर्मनिरपेक्षता की कसौटी माने जाने के कारण ओवैसी देश के सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष नेता माने जा रहे थे लेकिन अब उनकी छवि हर किसी के लिये सियासी अछूत की बन गयी है। वैसे यह पहला मौका है जब मुसलमानों का मसीहा कहलानेवालों को एक स्थापित मुस्लिम नेता ही धर्मनिरपेक्षता के लिये खतरा दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

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