‘आगाज के आईने में अंजाम की तस्वीर’
नवकांत ठाकुर
कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। या यूं कहें कि आगाज के वक्त दिखनेवाले लक्षणों से ही अंजाम का पता लग जाता है। तभी तो लंका पर चढ़ाई करने के लिये जब भगवान श्रीराम की सेना ने कूच किया तो उस पल का उल्लेख करते हुए तुलसीदास ने राम चरितमानस में लिखा है कि ‘जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई, अगसुन भगयु रावनहि सोई। यही वजह है कि किसी भी काम का सूत्रपात करते वक्त अपशगुनों को दूर रखने की परंपरा सदियों से हमारे समाज में चली आ रही है। लेकिन मसला है कि तमाम कोशिशों के बावजूद अगर एक भी शुभ लक्षण नहीं दिख रहा हो आखिर किया भी क्या जा सकता है। यही हालत हो गयी है बिहार के चुनाव में गैरभाजपाई महागठजोड़ की। हालांकि चुनाव की औपचारिक घोषणा होनी अभी बाकी है लेकिन तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी तैयारियों को काफी हद तक अंतिम रूप दे दिया है। ऐसे में अब जबकि चुनावी रणभेरी बजने की महज औपचारिकता ही बाकी है तो ऐसे वक्त में शुभ लक्षणों व अपशगुनों की ओर बरबस ही नजर खिंच जाना लाजिमी ही है। अब भले ही कोई इसे अंधविश्वास कहे लेकिन सच तो यही है धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ के लिये इन दिनों कुछ भी सही होता नहीं दिख रहा है। अव्वल तो ‘प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः’ की तर्ज पर जनता परिवार के सहोदरों का जुटान होने के साथ ही अलगाव की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसकी पूर्णाहुति समाजवादी पार्टी द्वारा निर्णायक तौर पर कर दिये जाने के मामले ने नितीश कुमार की अगुवाई में जारी चुनावी अभियान का उत्साह ही समाप्त कर दिया है। वैसे भी बिछड़े सभी बारी-बारी की तर्ज पर पहले जदयू से जीतनराम मांझी का और राजद से सीमांचल के दिग्गज नेता पप्पू यादव का अलग हो जाना, उसके बाद बेआबरू होकर एनसीपी का नितीश के कूचे से पलायन करना, जदयू से जमीनी नेताओं की भगदड़ शुरू होना, लालू के साथ नितीश की जुबानी जंग छिड़ना और अब आखिरकार सपा का भी जनता परिवार के गठन से मोहभंग होना यह बताने के लिये काफी है कि भाजपा विरोधी खेमे के ग्रह-नक्षत्र की चाल आरंभ से ही किस कदर वक्र दिख रही है। ऐसे में अगर चुनावी रैली में नितीश आपा खो रहे हैं तो यह उसी अपशगुन का नतीजा है जिसे शायद उन्होंने भी भांप लिया है। कहां तो सफर की शुरूआत भानुमति का कुनबा बनाने से हुई थी और अब आलम यह है कि महामोर्चे में गिनती के कुल तीन दल ही बच गये हैं। उसमें भी लालू के साथ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भावी तालमेल पर संशय के बादल ही छाये हुए हैं। नितीश ने वैसे भी लालू के साथ निर्धारित दूरी शुरू से ही कायम रखी हुई है। लेकिन मजबूरी तीनों की है कि अपने दम को तौलने का हौसला भी नहीं जुटा सकते। नितीश ने जब भी अपने दम पर चुनाव लड़ा तो उन्हें हमेशा मुंह की ही खानी पड़ी। लालू के ग्रहों की चाल लंबे समय से वक्री ही है। यहां तक कि अदालत द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद वे वैसे भी ग्यारह साल तक कोई चुनाव लड़ने के काबिल नहीं बचे हैं। ऐसे में अपने संगठन को जिंदा रखने के लिये जहर के हर घूंट को स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है। रहा सवाल कांग्रेस का तो उसे भी अपनी ताकत का पूरा इल्म है वर्ना देश की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्षा होने के बावजूद गांधी मैदान की रैली में सोनिया गांधी को लालू व नितीश के मुकाबले चैथे पायदान पर खड़े होने के विकल्प को सहर्ष स्वीकार नहीं करना पड़ता। खैर, कहने को कोई कुछ भी कहे लेकिन हकीकत यही है कि बिहार में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की नींव मजबूरी में ही पड़ी है। लेकिन मजबूरी में एकजुट होकर मजबूती की आस लगाने की नौबत सपा की तो कतई नहीं है। उसे वैसे भी पता है कि बिहार में उसकी जमीनी हैसियत वैसी ही है जैसी यूपी में नितीश की जदयू या लालू के राजद की। तभी तो आज जब रामगोपाल यादव ने गठजोड़ में पूछ नहीं होने व एहसान के तौर पर महज पांच सीटें मिलने की पीड़ा को वजह बताकर नितीश के खेमे से अलग होने का ऐलान किया तो उनके द्वारा बतायी गयी यह वजह किसी को हजम नहीं हुई। इस मामले में विरोधियों का वह ताना ही काफी हद तक सही लग रहा है कि डूबते जहाज में सफर करने के बजाय सपा ने अपने बाहुबल से तैर कर दरिया पार करने की राह पकड़ना ही बेहतर समझा है। वैसे भी जनता परिवार की पहली अग्निपरीक्षा में ही परास्त होने का जोखिम उठाने का नतीजा यूपी में कार्यकर्ताओं पर नकारात्मक असर डाल सकता था। लिहाजा सपा की मौजूदा पहलकदमी तो जायज भी है और स्वाभाविक भी। लेकिन नितीश के महामोर्चे में अपशगुन का सिलसिला थम ही नहीं रहा। परसों अनंत सिंह ने जदयू से पल्ला झाड़ा तो कल रघुनाथ झा राजद से अलग हो गये। जहाज से कूदने की कतार में अभी और भी हैं जो सिर्फ उचित मौके की तलाश में हैं। खैर, जंग के मैदान में उतरने के बाद शगुन-अपशगुन की परवाह नहीं करना ही बेहतर है लेकिन आवश्यक है कि इन संकेतों को समझकर अपनी रणनीतियां दुरूस्त कर ली जाए। वर्ना आगाज के संकेतों ने अंजाम की झलक दिखा ही दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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