’मन-मन भावे, मूड़ हिलावे‘
किसी के भी चाल-चरित्र व स्वभाव के बारे में जितनी सही व पूरी जानकारी उसके धुर विरोधी के पास होती है उतनी किसी और के पास हो ही नहीं सकती। तभी तो भाजपा को अगर सबसे सही तरीके से किसी ने जाना, समझा और पहचाना है, तो वे हैं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव। खास तौर से ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ का दिखावा करके मतदाताओं व विरोधियों को भ्रम व असमंजस में डालने के भाजपा के जिस चरित्र के प्रति मुलायम लगातार सबको आगाह करते रहे हैं उसी का मुजाहिरा किया है भाजपा की मौजूदा कूटनीति ने। यूपी विधानसभा के चुनाव में पार्टी एक हाथ में राष्ट्रवाद के झंडे और दूसरे में विकास के एजेंडे का तो सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा कर रही है। लेकिन राष्ट्रवादी झंडे के भीतर सांप्रदायिक मसलों का डंडा घुसेड़ने की अपनी कोशिशों को खुलकर स्वीकार करना उसे कतई गवारा नहीं हो रहा है। शायद यही भाजपा का असली स्वभाव जिसके तहत इसके तमाम नेता अधिकांश मसलों पर कभी एक सुर में बोलना गवारा नहीं करते। दूर से सुननेवालों को ऐसा लगता है मानो पार्टी के भीतर सैद्धांतिक व वैचारिक स्तर पर भारी टकराव चल रहा है। लेकिन नजदीक से देखने पर तस्वीर बदली हुई दिखती है। इसमें मजेदार तथ्य यह है कि पार्टी में सबकी राहें बेशक अलग दिखती हों लेकिन उनकी मंजिल एक ही रहती है। अब जहां लक्ष्य को लेकर कोई मतभेद या विरोधाभास ना हो वहां राहों का भेद कोई मायने नहीं रखता। लिहाजा इनका आपसी टकराव व विरोध भी अक्सर दिखावे का ही रहता है। परस्पर मतभेद तो दिखता है लेकिन उसमें मनभेद नहीं होता। मन मिला हुआ ही रहता है। दरअसल संगठनिक स्तर पर होनेवाली इस नूराकुश्ती का मकसद सिर्फ सियासी माहौल में भ्रम की स्थिति उत्पन्न करना ही रहता है। और कुछ भी नहीं। इस भ्रम के शिकार सिर्फ मतदाता ही नहीं होते बल्कि कई दफा विरोधी भी हो जाते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि भाजपा के किस नेता की बात का विरोध करें और किसके बयान की अनदेखी। भ्रम के इसी कुहासे में फंसकर विरोधियों की गाड़ी अक्सर डी-रेल हो जाती है और भाजपा मैदान मार ले जाती है। ऐसा ही माहौल भाजपा ने एक बार फिर बनाने का प्रयास किया है। खास तौर से यूपी विधानसभा के चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के मामले को लेकर। जितने मुंह उतनी बातें। सुब्रमण्यम स्वामी तो राम मंदिर निर्माण की तारीख का भी ऐलान कर चुके हैं। जबकि राजनाथ सिंह ने औपचारिक तौर पर सरकार की विवशता का इजहार करते हुए पहले ही कह दिया है कि चुंकि राज्यसभा में मोदी सरकार को बहुमत हासिल नहीं है लिहाजा संसद से कानून बनाकर मंदिर का निर्माण कर पाना फिलहाल संभव ही नहीं है। दूसरी ओर यूपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य से लेकर उमा भारती तक खम ठोंकते हुए यह कहने से परहेज नहीं बरत रहे हैं कि मंदिर तो मोदी सरकार के कार्यकाल में ही बनेगा। यानि हर किसी की जुबान पर मंदिर का नाम तो है लेकिन सुर अलग-अलग है। विनय कटियार तल्ख सुर में लाॅलीपाॅप की कड़वाहट बयान करते हैं तो महेश शर्मा कहते हैं कि जो किया जा सकता है वह तो कम से कम कर लिया जाये। इस सबसे अलग भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंदिर मसले को आस्था का विषय बताने से तो नहीं हिचक रहा लेकिन लगे हाथों यह समझाने से भी चुक रहा है कि यूपी में मंदिर को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जायेगा बल्कि पार्टी विकास और सुशासन के एजेंडे पर ही चुनाव लड़ेगी। पार्टी का साफ मत है कि मंदिर बनना तो चाहिये लेकिन इसके लिये मनामानी नहीं होनी चाहिये। या तो आम सहमति के आधार पर मंदिर निर्माण हो या फिर अदालत के आदेश पर। अब आम सहमति तो बनने से रही। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा किये गये विवादित जमीन के बंटवारे के दो हिन्दू लाभार्थियों के बीच अब तक सहमति नहीं बन पायी है तो तीसरे मुस्लिम पक्षकार के साथ सहमति बने भी तो कैसे? रहा सवाल अदालत के आदेश से मंदिर निर्माण का, तो इस राह के रोड़े फिलहाल समाप्त होते नहीं दिख रहे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला सामने आये तकरीबन दो साल का वक्त गुजर जाने के बावजूद आज तक इस मामले की फाइल सर्वोच्च न्यायालय की आलमारी में धूल ही फांक रही है। अब तक इसकी सुनवाई के लिये पीठ का गठन भी नहीं हो पाया है। पता नहीं कब पीठ का गठन होगा, कब सुनवाई होगी और कब इसका फैसला आएगा। यानि पूरा मामला अभी बदस्तूर अटका-लटका ही रहनेवाला है। इस हकीकत को जानते हुए भी अगर मंदिर मसले की लहर उठाने का प्रयास हो रहा है और कटियार की तल्खी, सरकार की नरमी और संगठन की गर्मी दिख रही है तो इसमें किसी का किसी से कोई विरोधाभास नहीं है। अंदर से सब मिले हुए ही हैं। बस ऊपर से एक दूसरे से असहमत होने का दिखावा किया जा रहा है। ताकि समाज की कट्टरवादी धारा पर भी पकड़ बनी रहे और मध्यममार्गी धारा पर भी। इसके अलावा छोड़-पकड़ की इस खींचतान में विरोधियों को भी उलझाये रखा जाये ताकि वे किसी एक बयान को पकड़कर आगे ना ले जा पायें। अब ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ की जो दोधारी तलवार भाजपा भांज रही है उसकी चपेट इसके विरोधी आते हैं या पार्टी खुद ही लहुलुहान होती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur
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