‘सपनों का ‘भारत’ के लिए ‘इंडिया’ से ईंधन’
मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट होने के नाते अटकलें लगाई जा रही थी कि इसमें लोकलुभावन योजनाओं की झड़ी लगाकर वित्त मंत्री अरूण जेटली लोगों का दिल जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इन अटकलों को बल देने की पहल भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही की थी जब सत्र की शुरूआत के वक्त उन्होंने बताया था कि इस बार का बजट देश के सामान्य मानवी की आशाओं व अपेक्षाओं को पूर्ण करने वाला होगा। ऐसे में उम्मीदें उफान पर होनी ही थीं। तभी तो देश की व्यवस्था का आईना माना जाने वाला शेयर बाजार सुबह से ही कुलाचें भर रहा था। आधा बजट भाषण होने तक तो बाजार तकरीबन 200 से अधिक अंक तक चढ़ गया। लेकिन इस बार का राजस्व घाटा 3.6 फीसदी से कम होकर 3.4 फीसदी तक रहने की बात जेटली द्वारा स्वीकार करते ही शेयर बाजार ने गोता लगाते हुए गहराई की ऐसी पकड़ी कि बजट भाषण समाप्त होने तक बाजार ने तकरीबन साढ़े चार सौ अंकों की गिरावट दर्ज करा दी। इसके अलावा इलेक्ट्राॅनिक व सोशल मीडिया पर भी बजट की ऐसी नकारात्मक विवेचना होने लगी मानो जेटली ने बेड़ा पार करने के बजाय पूरी तरह बंटाधार कर दिया हो। खास तौर पर मध्यम व नौकरीपेशा वर्ग को बजट से कोई बड़ी राहत नहीं मिलने की बात जंगल में आग की तरह फैल गई और बजट की इस कदर चैतरफा आलोचना होने लगी कि विवश होकर प्रधानमंत्री को खुद सामने आना पड़ा और बजट की खासियत व विशेषताएं विस्तार से बतानी पड़ीं। इसके बाद वित्त मंत्री ने भी बजट की बारीकियां समझाईं और शाम ढ़लने से पूर्व ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी इसे विकासोन्मुख बजट साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। समय बीतने के साथ बाजार को भी बजट की विशेषताएं समझ में आने लगीं और आखिरकार सामान्य व मामूली गिरावट के साथ बाजार बंद हुआ। ऐसे में सवाल है कि आखिर यह बजट इतना पेंचीदा कैसे हो गया जिसकी खासियतों को सीधे तौर पर एक झटके में ही नहीं समझा जा सका। वर्ना अगर यह बजट इतना ही बुरा होता तो इसकी आलोचना में एक शब्द भी खर्च किए बिना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हर्गिज चुपचाप संसद परिसर से बाहर नहीं निकले होते। वास्तव में देखा जाए तो इस बजट ने कई परंपराओं को तोड़ा है और इसमें कई सियासी संकेत भी छिपे हुए हैं। मसलन भारी घाटे का चुनावी लोकलुभावन बजट प्रस्तुत करने से परहेज बरत कर सरकार ने साफ तौर पर यह संकेत तो दे ही दिया है कि तय वक्त से पहले लोकसभा का चुनाव कराने का उसका कोई इरादा नहीं है। इसके अलावा शुरूआती कटु आलोचनाओं से वित्त मंत्री का बचाव करने के लिए जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी खुद सामने आए और बजट की तमाम खासियतों व बारीकियों को विस्तार से समझाया उससे यह भी पता चल गया कि बजट की दिशा व रूपरेखा का निर्धारण करने में संगठन व सरकार की पूर्ण सामूहिक एकमतता रही है और कसी भी स्तर या पैमाने पर इसे मनमाना या दिशाहीन नहीं होने दिया गया है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों एक निजी समाचार चैनल को दिए गए साक्षात्कार में जो दावा किया था कि उन्हें या उनकी पार्टी को चुनावी या राजनीतिक लाभ दिलाने के बजाय इस बार का बजट देश के विकास को लाभ पहुंचाने वाला होगा, उस दावे पर भी यह बजट खरा उतरा है और देश के सामान्य मानवी की अपेक्षाओं को पूरा करने का उन्होंने जो भरोसा दिलाया था उस कसौटी पर भी बजट पूरी तरह सही साबित हुआ है। सच पूछा जाए तो गांव, गरीब, किसान, युवा, महिला, दलित, पीड़ित, शोषित और वंचित तबके की समस्याएं सियासी लाभ के लिए तो हमेशा से गिनाई जाती रही हैं लेकिन ऐसा कम ही देखा जाता है कि सरकार के बजट का अधिकतम हिस्सा इनके लाभ और उत्थान के लिए ही समर्पित कर दिया जाए। मसलन, इस बार के बजट में जिस तरह से 10 करोड़ परिवारों के पचास करोड़ लोगों को सालाना पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा देने, कृषि उपज की लागत से डेढ़ गुना अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने, किसान क्रेडिट कार्ड का लाभ भू-स्वामियों के अलावा भूमिहीन बटाईदारों और मछली पालन व बागवानी करने वालों को भी दिलाने, आॅपरेशन ग्रीन के द्वारा आलू, प्याज व टमाटर के किसानों को सहायता, संरक्षा व बड़ा बाजार उपलब्ध कराने, उज्वला योजना के लाभार्थियों का लक्ष्य पांच करोड़ से बढ़ाकर आठ करोड़ करने, तपेदिक के मरीजों को पौष्टिक भोजन के लिए हर माह 500 रूपया देने और नए कर्मचारियों का शुरूआती तीन साल का पीएफ अंशदान सरकार द्वारा जमा कराए जाने सरीखे जो बजट प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए हैं वे यही दर्शा रहे हैं कि बढ़ती अर्थव्यवस्था से होनेवाली कमाई का सीधा लाभ सरकार उन लोगों को देनेवाली है जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है। हालांकि इसका बोझ उन लोगों पर अवश्य डाला गया है जिन्हें केन्द्र में रखकर अब बजट बनाए जाने की परंपरा रही है। लिहाजा तात्कालिक तौर पर मुखर आक्रोश दिखना स्वाभाविक है जिसकी चीख चिल्लाहट के बीच काम की बातें कुछ समय के लिए अनसुनी रह सकती हैं। लेकिन ‘भारत और इंडिया’ के बीच के अंतर व असंतुलन को याद करते हुए समग्रता में देखें तो यह बजट सपनों का भारत बनाने के लिए इंडिया से ईंधन का जुगाड़ करता दिख रहा है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें