लोग मिर्च इसलिये खाते हैं ताकि कड़वी लगे और चीनी का इस्तेमाल मिठास के लिये किया जाता है। अगर मिर्च ही चीनी से अधिक मीठी हो जाए तो कोई चीनी क्यों खाएगा। ऐसी ही तस्वीर पांच राज्यों के चुनावी नतीजों में भी उभरी है जब भाजपा के चाल-चरित्र और कथनी-करनी में तारतम्यता नहीं दिखी तो मतदाताओं को मजबूरन भाजपा से किनारा करना पड़ा है। वास्तव में देखें तो भाजपा ने बीते साढ़े चार सालों में जरा भी एहसास नहीं कराया है कि यह वही पार्टी है जिसकी स्थापना मूल्य आधारित सिद्धांतवादी राजनीति के लिये ‘पार्टी विद डिफरेंस’ के रूप में की गई थी। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में मोदी-शाह की जोड़ी ने संगठन व सरकार को जिस तरह से संचालित किया है उसमें बेशक कई खूबियां होंगी लेकिन कई ऐसी खामियां भी रही हैं जिसे नजरअंदाज करना आम मतदाताओं के लिये भी मुश्किल हो गया। हालांकि सतही तौर पर देखा जाये तो पांच राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए और उसके नतीजों के प्रत्यक्ष प्रभाव का दायरा भी सूबाई स्तर तक ही सीमित है लिहाजा इसे मोदी-शाह के कामकाज से जोड़कर देखना सही नहीं होगा। लेकिन गहराई से परखें तो पांचों ही राज्यों के जनादेश की समग्र तस्वीर स्पष्ट तौर पर इशारा कर रही है कि मतदाताओं ने सिर्फ सूबाई स्तर पर ही भाजपा को खारिज नहीं किया है बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति भी जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है। वर्ना सभी राज्यों में भाजपा को एक साथ शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता। यह जनादेश दर्शाता है कि मतदाताओं को अच्छे दिनों की जो आस बंधाई गई थी उसके पूरा हो पाने की उम्मीद भी नहीं बची है। हालांकि अच्छे दिन आए जरूर लेकिन वह अंबानी, अडानी और रामदेव जैसे उद्योगपतियों के और भाजपा व संघ परिवार से जुड़े संगठनों के हिस्से में आए। आम जनता के हिस्से में तो नोटबंदी ही आई जिसमें कितनों के रोजगार गए, कितने ही लोगों को किस स्तर की विपत्ति झेलनी पड़ी और कितने छोटे व्यापारी व स्वरोजगारी तबाह-बर्बाद हो गए इसकी ना तो कभी सुध ली गई और ना ही उनके दुख-तकलीफ को सरकारी स्वीकार्यता मिली। जब आम लोगों ने पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता की बागडोर सौंपी थी तो इसके पीछे भरोसा था पार्टी के मूलभूत सिद्धांतों का। उम्मीद थी चाल-चरित्र, रीति-नीति और कथनी-करनी में एकरूपता की। विश्वास था संगठन के आंतरिक लोकतंत्र और अनुभवी व युवा नेतृत्व के सामंजस्य का। लेकिन बीते साढ़े चार सालों में ना तो भाजपा ने अपने मूल सैद्धांतिक मसलों को आगे बढ़ाने में रूचि दिखाई, ना कथनी और करनी में तालमेल दिखाई पड़ा और ना ही संगठन में सबको साथ लेकर चलना जरूरी समझा गया। अलबत्ता मुजाहिरा किया गया ‘बेढ़ंगी चाल’ ‘संदेहास्पद चरित्र’ और ‘तानाशाही चेहरे’ का जिसके नतीजे में आज का यह चुनावी नतीजा सामाने आया है। इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता है कि अगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी विश्वसनीयता कायम रखी होती और हर स्तर पर तानाशाही प्रवृत्ति का परिचय नहीं दिया होता तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में तस्वीर अलग दिखाई पड़ती जहां चुनावी नतीजों में किसी बड़े सत्ता विरोधी लहर का रूझान नहीं दिखा है। लेकिन जिस मनमाने तरीके से संगठन और सरकार का संचालन हो रहा है उसकी बानगी किसानों के आंदोलन के दौरान भी दिखाई पड़ी जिसमें कुल चार बार देश भर के किसानों ने दिल्ली में दस्तक देकर अपनी व्यथा-कथा सुनाने की कोशिश की लेकिन उनकी बात सुनना भी गवारा नहीं किया गया। बात तो उन छोटे दुकानदारों और खुदरा व्यापारियों की भी नहीं सुनी गई जो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि भाजपा मल्टीनेशनल और आॅनलाइन कंपनियों के लिये मल्टीब्रांड खुदरा बाजार का दरवाजा खोल देगी। दलित उत्पीड़न कानून के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट की बात भी नहीं सुनी गई। इसी प्रकार यह कल्पना से भी परे था कि भाजपा राममंदिर, धारा-370, समान नागरिक संहिता और गौ-हत्या सरीखे मूलभूत सैद्धांतिक मामलों की अनदेखी करती रहेगी। कथनी में भाजपा भव्य राममंदिर के पक्ष में है लेकिन करनी में वह अपनी ओर से कोई कदम उठाने के लिये तैयार नहीं है। कथनी में जम्मू कश्मीर को धारा 370 से मुक्त करने की बात की जाती है लेकिन करनी में उस पीडीपी से गठजोड़ करके सरकार बनाई जाती है जो सूबे के विशेषाधिकार से समझौता करने की सोच भी नहीं सकती। कथनी में गौ-रक्षा की कसमें खाई जाती हैं लेकिन करनी में तमाम ऐसे कदम उठाए जाते हैं ताकि पूर्वोत्तर से लेकर गोवा तक में गौ-मांस की निर्बाध आपूर्ति बदस्तूर जारी रहे। कथनी में राजग के सहयोगियों को साथ लेकर चलने की बात कही जाती है लेकिन करनी में वरिष्ठ जदयू नेता केसी त्यागी के मुताबिक एक बार भी राजग की औपचारिक बैठक आयोजित करने की जहमत नहीं उठाई जाती है। उस पर कोढ़ में खाज की कमी पूरी कर देती है राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली मोदी की वह शब्दावली जो भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ही गिराती है। यानि समग्रता में देखें तो भाजपा से आम लोगों की जो उम्मीदें थी वह ना तो सैद्धांतिक तौर पर पूरी हो पाईं और ना ही व्यावहारिक तौर पर। लिहाजा जब सिर्फ सत्ता की राजनीति करने वालों में से ही किसी को चुनना है तो भाजपा में ही कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं, जिसका कांग्रेस में अभाव है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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