राजधानी दिल्ली सिर्फ एक शहर या महानगर नहीं है। यह मिनी भारत भी है। देश का शायद ही कोई ऐसा जिला-जनपद होगा जहां के लोग दिल्ली में ना रहते हों। जाहिर है कि जहां पूरे भारत के लोग रहते हैं वहां देश के हर कोने की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और बोल-वचन ही नहीं बल्कि समूचे देश में जमीनी स्तर पर मौजूद गुण-अवगुण और (सु या कु) व्यवस्था के भी दर्शन होंगे ही। लेकिन होता यह है कि गुण का प्रसार तो बाद में होता है अवगुण अपने पांव काफी तेजी से फैला लेता है। पूरे तालाब को गंदा करने के लिये सिर्फ एक सड़ी हुई मछली ही काफी होती है और समूचे गुलिस्तान को विरान करने के लिये एक ही उल्लू काफी होता है। लेकिन यहां तो समूचे देश का गुण कम और दुर्गुण अधिक आ गया है। तभी तो दिल्ली का दामन दिनों-दिन इस कदर दागदार और तार-तार होता जा रहा है कि अब यह कहने में भी शर्म आने लगी है कि यह दिलवालों की दिल्ली है। सच पूछा जाये तो अब दिल्ली की व्यवस्था के संचालकों में दिल नाम की कोई चीज चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी बमुश्किल ही मिल पाती है। देश के बाकी हिस्सों में हालात शायद ही इतने बुरे हों जितने दिल्ली में हैं। यहां आदमी की सुविधा के लिये व्यवस्था नहीं है बल्कि सुविधा के साथ व्यवस्था के संचालन में सहभागी बनना आदमी की विवशता है। यहां आदमी के लिये व्यवस्था नहीं बदलती बल्कि व्यवस्था के मुताबिक आदमी को ढ़लना-बदलना पड़ता है। यहां आदमी की किसी समस्या के लिये व्यवस्था कतई जिम्मेवार नहीं होती, अलबत्ता व्यवस्था की समस्याओं के लिये आदमी को जिम्मेवार अवश्य बताया जाता है। यहां बिना उफ किये चुपचाप व्यवस्था को सहते-ढ़ोते रहना आदमी की अनिवार्य जिम्मेवारी है। हालांकि जो लोग दिल्ली की इस हकीकत से वाकिफ नहीं हैं उनके लिये ये बातें अचरज का सबब हो सकती हैं लेकिन यहां आदमी और व्यवस्था के बीच का रिश्ता महीनों या वर्षों नहीं बल्कि दशकों से ऐसा ही चला आ रहा है। यहां व्यवस्था मजबूत है और आदमी मजबूर। तभी तो एक नीम-पागल मां और दरिद्र रिक्शाचालक पिता की तीन बेटियां भूख से दम तोड़ देती हैं लेकिन इसके लिये पूरी व्यवस्था के किसी भी अंग की जिम्मेवारी तय नहीं होती। हालांकि मौत भूख से हुई है तो राजनीति भी होगी ही। तभी उंगली भी उठ रही है और दोषारोपण भी हो रहा है। कांग्रेस ने केन्द्र की भाजपा और दिल्ली की आप सरकार को जिम्मेवार बताया है। भाजपा, कांग्रेस के शासन में हुए ‘खुल्ला खेल फर्रूखाबादी’ और आप सरकार के नाराकरापन को जिम्मेवार बता रही है। उधर आप सरकार व्यवस्था के सिर पर मामले की जिम्मेवारी का ठीकरा फोड़ रही है। रही व्यवस्था की बात तो उसका तर्क है कि बीते कई सालों से उसके पास कोटा ही खाली नहीं है कि नया राशन कार्ड बन सके। यानि भूख से हुई तीन मासूम बहनों की मौत की शर्मनाक घटना के लिये यहां कोई जिम्मेवार नहीं है। वह भी तब जबकि साल 2013 में संसद ने खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया तो लगा कि अब देश में कोई भूखा नहीं सोएगा। सबको भर पेट भोजना अवश्य मिलेगा। लेकिन इस कानून को यहां की व्यवस्था ने इस तरह लागू किया कि भूखे तक तो रोटी पहुंची नहीं अलबत्ता राशन पाने का हक उन्हें मिला जिनके लिये यह राहत नहीं मुनाफा है। व्यवस्था को चढ़ावा चढ़ाने के एवज में हासिल मुनाफा। वैसे बिना चढ़ावे के प्रसाद मिले भी तो कैसे? क्योंकि जिन नियम-कायदों के तहत 15 लाख परिवारों के राशन कार्ड बनाए गए उसमें शर्त रखी गई कि एक लाख सालाना से अधिक आमदनी वाले परिवारों को राशन नहीं दिया जा सकता। साथ ही एक अनिवार्य शर्त थी कि कार्ड उनका ही बनेगा जिनके पास रिहाइश का प्रमाण भी उपलब्ध हो। यानि नियम ऐसा जिसे बिना चढ़ावे के पूरा नहीं किया जा सकता। वर्ना जिसके पास दिल्ली में रिहाइश का प्रमाण पत्र होगा उसकी आमदनी सिर्फ एक लाख सालाना कैसे हो सकती है और जिसकी कमाई सिर्फ एक लाख होगी वह दिल्ली जैसे शहर में परिवार कैसे पाल सकेगा। इस झोल की पोल तब खुली जब राशन वितरण के लिये बायोमैट्रिक व्यवस्था लागू की गई। तब कुल चार लाख कार्डधारक ऐसे गायब हुए कि उनका कुछ अता-पता ही नहीं चला। इनमें डेढ़ लाख कार्डधारक तो ऐसे थे जिन्होंने सालाना 25 हजार की आमदनी दर्शाकर वह अंत्योदय कार्ड हासिल कर लिया जिसमें सामान्य राशन कार्ड के मुकाबले काफी अधिक सरकारी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन इन कार्डों को निरस्त करने की जहमत नहीं उठाई गई क्योंकि दिल्ली की गरीब हितैषी सरकार के संचालकों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। नतीजन जिस मंडावली में तीन बहनों की भूख से मौत हुई है वहां कोटा खाली नहीं होने के कारण वर्ष 2015 से अब तक एक भी नया राशन कार्ड बनाया ही नहीं गया है। यही स्थिति समूची दिल्ली की है। अब ऐसे में अगर कोई पूछे कि इस पूरी अव्यवस्था की जिम्मेवारी किसकी है तो शायद ही इसका कोई जिम्मेवार साबित हो सके। लिहाजा जब भूख से तीन बच्चियों की मौत की खबर सुर्खियों में आती है तो दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री इसका ठीकरा व्यवस्था पर फोड़ते हैं। वैसे एक मिनट के लिये उनकी बात मान भी ली जाए तो सवाल उठता है कि अगर ऐसी व्यवस्था के भरोसे रहना है तो फिर सरकार की क्या जरूरत है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर
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