केन्द्र की मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिये विपक्ष की बेचैनी किसी से छिपी ने नहीं है। इसके लिये समूचा विपक्ष कुछ भी कर गुजरने के लिये सैद्धांतिक तौर पर पूरी तरह तैयार हो चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी वापस ले ली है तो प्रदेश स्तर पर यूपी में सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद सपा ने महागठबंधन के लिये कुर्बानी देते हुए अपनी तुलना में बसपा को अधिक सीटें देने की स्वीकृति का संकेत दे दिया है। बिहार में राजद ने सभी गैर-भाजपाई ताकतों को महागठबंधन में सम्मानजनक तरीके से समाहित करने के लिये तमाम खिड़की-दरवाजे खोल दिये हैं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव लेकर ममता बनर्जी दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार सदस्यों से एकांत में बातचीत कर चुकी हैं। सुदूर दक्षिण में द्रमुक के साथ कांग्रेस के तालमेल की रूपरेखा पहले ही तैयार हो चुकी है जबकि जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस भी महागठजोड़ का हिस्सा बनने के लिये पहले से तैयार है। कर्नाटक में जद-एस की नाराजगी को दूर करते हुए कांग्रेस ने उसे किसी भी मसले पर सीधा केन्द्रीय नेतृत्व से संवाद कायम करने की मंजूरी दे दी है और आंध्र प्रदेश व तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक में भाजपानीत राजग के खिलाफ दिख रहे तमाम दलों को एकजुट होकर चुनाव लड़ने के लिये मनाया-समझाया जा रहा है। यानि बीते लोकसभा चुनाव में विपक्षी वोटों के बिखराव के कारण महज 32 फीसदी वोट पाकर ही संसद में अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लेने वाली भाजपा की चैतरफा घेरेबंदी करके यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि भाजपा को नकारने के लिये पड़नेवाला एक भी वोट विपक्ष के बिखराव के कारण बर्बाद ना हो सके। इस तरह 2019 के आम चुनाव की रणभूमि के लिये व्यूह रचना की निर्णायक रूपरेखा तैयार कर ली गयी है। लेकिन सवाल है कि महारथियों के व्यूह को धारदार व मारक हथियारों से लैस किये बिना सत्ता पक्ष पर जोरदार प्रहार करके उसे परास्त करने की योजना को कैसे सफल किया जा सकता है। इस लिहाज से देखा जाये तो सरकार पर जोरदार प्रहार करने के लिये दमदार मुद्दों के हथियार का चयन करने के मकसद से हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के नतीजे से कोई उत्साहजनक वातावरण नहीं बन पा रहा है। हालांकि समान विचारधारा वाले तमाम दलों को अपने साथ मजबूती से जोड़ने के लिये कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद का लाॅलीपाॅप अपने दरवाजे के बाहर अवश्य लटका दिया है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा गैर-भाजपाई दल होने के नाते महागठबंधन की धुरी की भूमिका तो कांग्रेस को ही निभानी होगी। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की बात करें तो कांग्रेस के अलावा बाकी सभी पार्टियों की पहुंच क्षेत्रीय व सूबाई स्तर तक ही सिमटी हुई है। लिहाजा चुंकि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाकर भाजपा के खिलाफ मजबूत घेराबंदी तैयार करने की जिम्मेवारी कांग्रेस के ही कांधों पर है तो फिर ऐसे मुद्दों के हथियारों का चयन भी उसे ही करना होगा जिसका राष्ट्रव्यापी प्रयोग कर पाना संभव हो। हालांकि इस जिम्मेवारी को निभाते हुए कार्यसमिति की दूसरी बैठक में कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनमें असम के नागरिकता रजिस्टर से 40 लाख लोगों का नाम नदारद होना, फ्रांस से राफेल जहाजों की खरीद में हुआ भ्रष्टाचार, बैंकों में हुई धोखाधड़ी और बढ़ती बेरोजगारी का मसला मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन इनमें से एक की भी मारकता ऐसी नहीं दिख रही है जो भाजपा की विश्वसनीयता व स्वीकार्यता के कवच में छेद कर उसके मर्मस्थल को भेदने में सक्षम हो। बल्कि खतरा तो यह है कि कांग्रेस द्वारा चयनित मुद्दों के तमाम हथियार कहीं भाजपा के कवच से टकराकर उल्टा बुमरैंग करके विपक्ष को ही आहत व घायल ना कर दें। मसलन असम के नागरिकता रजिस्टर का मसला भाजपा ने ही विपक्ष को थमाया है लिहाजा विपक्ष जितना इस मुद्दे को तूल देगा उतना ही इससे भाजपा को राष्ट्रीय स्तर फायदा मिलेगा क्योंकि इससे कट्टर राष्ट्रवादी सोच जुड़ी हुई है जिसका प्रसार भाजपा के लिये बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है। इसी प्रकार बैंकों में धोखाधड़ी के आंकड़े भी कांग्रेस के ही खिलाफ हैं क्योंकि पूरा एनपीए घोटाला उसके ही कार्यकाल में हुआ। राफेल के मामले में भी गोपनीयता करार वर्ष 2008 में तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने किया था जिसके लागू रहते हुए इस पर उठनेवाले तमाम सवालों से भाजपा के पक्ष में जनसंवेदना का निर्माण हो सकता है। रहा सवाल रोजगार का तो इसको लेकर सत्तापक्ष या विपक्ष कुछ भी कहे लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि यह सनातन समस्या है जिसका राजनीतिक स्तर पर पूर्ण निदान नहीं हो पाने की बात सर्वविदित है। यानि समग्रता में देखा जाये तो कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनकी जड़ें या तो उसके ही कार्यकाल की नाकामियों से जुड़ी हैं अथवा मोदी सरकार ने ही उपहार के तौर पर ये मुद्दे उसे सुलभ कराए हैं। ऐसे में यह विश्वास करना तो बेहद मुश्किल है कि इन मुद्दों से मोदी सरकार की स्वीकार्यता या लोकप्रियता में रत्ती भर भी कमी आ पाएगी अलबत्ता यह देखना अवश्य दिलचस्प होगा कि अगर वाकई विपक्ष ने इन्हीं मुद्दों से सरकार पर प्रहार करने की पहल की तो इसके पलटवार का विपक्ष की सेहत पर क्या असर पड़ेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर
Very practical analysis. Its fact that today not a single Leader of Mahagathbandhan is able to match with the personality of PM Modi.
जवाब देंहटाएंThanks...
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