‘सौ सुनार की एक लुहार की’
यूपी की राजनीति पर गौर करें तो महज एक पखवाड़े के भीतर ही तमाम स्थापित समीकरणों में जो नाटकीय परिवर्तन दिख रहा है वह वाकई बेहद दिलचस्प है। सूबे की सियासत ने इस तेजी से करवट ली है कि ना सिर्फ भाजपा को अपनी राह बदलने के लिये मजबूर होना पड़ा है बल्कि कांग्रेस को भी तुरूप के उस अंतिम इक्के को दांव पर लगाने के लिये मजबूर होना पड़ा है जिसकी विफलता के बाद पार्टी के पास कुछ नहीं बचेगा। इसके अलावा सत्तारूढ़ सपा की बात करें तो इस खेमे में भी कल तक जिनकी तूती बोलती थी वे आज लाख कोशिशों के बावजूद भी अपनी हताशा, निराशा व बौखलाहट नहीं छिपा पा रहे हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो सूबे का पूरा सियासी समीकरण ही शीर्षासन की अवस्था में आ गया है। क्या सपा, क्या भाजपा, क्या बसपा और क्या कांग्रेस। हर खेमा हतप्रभ है, हर तरफ कसमसाहट है। लेकिन इस सबका जो सूत्रधार है वह शांत है, खामोश है। वह तो यह स्वीकार करने के लिये भी तैयार नहीं है कि उसने एक झटके में वह कर दिखाया है जो पिछले साढ़े चार साल से नहीं हो सका। यानि साढ़े चार साल से चल रही सियासी सुनारों की अनवरत ठुकठुकी पर लुहारी हथौड़े की ऐसी चोट पड़ी है जिसने बड़ी जतन व मेहनत से गढ़े गये तमाम समीकरणों को एक झटके में ही पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर के रख दिया है। तमाम स्थापित समीकरणों की शक्ल ही बदल गयी है, पहचानने लायक भी कुछ नहीं बचा है। साढ़े चार साल की अनवरत मेहनत से यह मान्यता स्थापित की गयी थी कि सूबे की सरकार का पूरा नियंत्रण शिवपाल यादव और आजम खान के हाथों में है जबकि अखिलेश यादव महज मुखौटे की भूमिका में हैं और मुलायम सिंह यादव नेपथ्य में जा चुके हैं। लेकिन यह पूरा समीकरण एक झटके में इस कदर उलट-पुलट हो गया है कि शिवपाल को मंच पर अगली पांत में बैठने के लिये भी मनाना पड़ रहा है जबकि आजम कब अपना आपा खोकर आंय-बांय बोलने लग जाएं इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। अब तो नमाजियों पर भी भड़क जाते हैं। उन्हें इफ्तारी का कायदा सिखाने लगते हैं। दूसरी ओर अखिलेश को भी अब मुखौटा नहीं कहा जा सकता है बल्कि अब वे संगठन व सरकार के ऐसे सशक्त संचालनकर्ता बन कर सामने आये हैं जो कमियों व खामियों को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता, भले ही वे गलतियां उनके पिता को विश्वास में लेकर ही क्यों ना अंजाम दी गयी हों। साथ ही मुलायम एक बार फिर सपा के सिरमौर की छवि को मजबूत करते हुए ऐसे महानायक के तौर पर सामने आ गये हैं जिनकी मर्जी के बिना संगठन व सरकार में कोई पत्ता भी नहीं खड़क सकता। अब ना तो अखिलेश पर जंगलराज व गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जा सकता है और ना ही सूबे की सरकार पर यादव परिवार के हावी होने की दुहाई दी जा सकती है। यानि एक झटके में ही संगठन व सरकार की छवि का ऐसा काया कल्प हो गया है जिसकी कल तक सपने में भी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। यह सब किया है मुलायम के उस लुहारी दांव ने जिसकी कोई काट ही नहीं है। और इसके लिये नेताजी ने ना तो पाताल तोड़ा और ना ही आसमान नोंचा। उन्होंने किया सिर्फ यह कि अंसारी बंधुओं के संगठन में सम्मिलन का प्रस्ताव खारिज कर दिया, अमर सिंह को दिल के साथ ही दल में भी जगह देते हुए संसद के उच्च सदन में दाखिल करा दिया और बलराम सिंह यादव की महज पांच दिनों के भीतर ही सरकार में वापसी करा दी। इन तीन फैसलों ने पूरे परिवेश को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। सपा में अमर की आमद के साथ ही आजम का अस्तित्व खुदमुख्तार से बदलकर पैरोकार का भी नहीं बचा। अंसारी की अगवानी कर रहे शिवपाल की संगठन व सरकार की सर्वेसर्वा की स्वीकार्यता समाप्त हो गयी जबकि इससे अखिलेश को मुखौटे की छवि से उबरकर सत्य व शुचिता को सर्वोपरि माननेवाले सशक्त नेतृत्वकर्ता के तौर पर उभरने में कामयाबी मिल गयी। साथ ही गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप भी धुल गया और परिवार के दबाव में फैसले लेने की बात भी सिरे से समाप्त हो गयी। लगे हाथों बलराम की पद-प्रतिष्ठा बहाली से यह भी प्रमाणित हो गया कि संगठन व सरकार में किसी की मनमानी नहीं चल सकती, अखिलेश की भी नहीं। अलबत्ता होगा वही जो मंजूरे मुलायम होगा। इति सिद्धम। अब इस बदले माहौल में बदलना तो सबको पड़ेगा। तभी तो कल तक प्रशांत किशोर की मांग के बावजूद प्रियंका को यूपी में आगे करने की बात सुनना भी गवारा नहीं करनेवाले गांधी परिवार को अब अपनी तूणीर के इस आखिरी वाण को भी आजमाने के लिये मजबूर होना पड़ा है और भाजपा को छठी के दूध की तरह समान नागरिक संहिता व अयोध्या सरीखे उन भूले-बिसरे मसलों को भी आगे करने पर विवश होना पड़ा है जिसे हालिया दिनों तक राष्ट्रीय कार्यकारिणी में औपचारिकता के नाते भी याद नहीं किया जा रहा था। खैर, तीन फटाफट फैसलों के एक दांव से ही सिरदर्दी का सबब बने तमाम समीकरणों को सिरे से ध्वस्त कर देनेवाले मुलायम को यह तो स्वीकार करना ही होगा कि उन्होंने दुरूस्त काम करने में कुछ देरी अवश्य कर दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur
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