‘ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की’
नवकांत ठाकुर
कबीर परंपरा के कवि माने जानेवाले रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी साहब की मानें तो ‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की, ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की, आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत, वो कहानी है महज प्रतिशोध की संत्रास की।’ वाकई राजतंत्र हो या लोकतंत्र, सियासत का इतिहास अक्सर प्रतिशोध की स्याही से ही लिखा जाता है। यानि सियासत को प्रतिशोध से अलग करके देख पाना बेहद ही मुश्किल है। तभी तो मौजूदा दौर में भी जिन सियासी सरगर्मियों ने संसद से सड़क तक कोहराम मचाया हुआ है उसकी असली वजह प्रतिशोध को ही बताया जा रहा है। प्रतिशोध यानि बदला, रिवेंज, इंतकाम। चुंकि सियासत में इंतकाम की परंपरा हमेशा से चली आ रही है लिहाजा अगर खुद की गलतियों के कारण भी कुछ खामियाजा भुगतना पड़ रहा हो तो उसे विरोधी पक्ष के बदले की कार्रवाई बताकर खुद के लिये जन सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास करना बेहद आसान हो जाता है। तभी तो मौजूदा दौर का मजेदार तथ्य यह है कि भले ही सभी पक्ष इस बात पर एकमत हों कि सियासी दाल में प्रतिशोध की आंच से ही उबाल आया हुआ है लेकिन कोई भी पक्ष यह स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है कि बदले की कार्रवाई उसकी ओर से की जा रही है। कांग्रेस की मानें तो सत्ताधारी भाजपा की ओर से उसके शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ राजनीतिक द्वेष के तहत बदले की कार्रवाई की जा रही है जबकि भाजपा की मानें तो लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त का बदला लेने के लिये ही कांग्रेस किसी भी सूरत में देश को उन्नति की राह पर आगे नहीं बढ़ने देना चाह रही है। इसी प्रकार सपा का कहना है कि उत्तर प्रदेश की सरकार को विकास व जनहित का काम करने से रोकने के लिये केन्द्र की ओर से मिलनेवाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है जबकि केन्द्र की मानें तो अपने लिये सहानुभूति अर्जित करने के मकसद से ही सूबे की सपा सरकार बेवहज रोना-गाना कर रही है। इसी प्रकार पी चिदंबरम इस बात की चुनौती दे रहे हैं कि भाजपा को जो भी बदला लेना हो वह सीधा उनसे ले, उनके बेटे को 2जी घोटाले के मामले में ना फंसाए जबकि ममता बनर्जी का कहना है कि अगर हिम्मत है तो केन्द्र के इशारों पर काम कर रही सीबीआई उसे पकड़ के दिखाए। अरविंद केजरीवाल दावा करते हैं कि दिल्ली में मिली हार से बौखलायी भाजपा अब केन्द्र की ताकत का इस्तेमाल करके सूबे की जनता का जीना दुश्वार कर रही है जबकि तमाम गैरभाजपायी दल इस बात पर एकमत हैं कि मौजूदा केन्द्र सरकार आरएसएस की विचारधारा के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। दूसरी ओर भाजपा की दलील है कि उसे लोकसभा में मिला हुआ बहुमत विरोधियों को हजम नहीं हो रहा है जिसके कारण उसके खिलाफ चैतरफा असहिष्णुता दिखायी जा रही है और राजनीतिक बदले के तहत उसकी तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को किसी ना किसी बहाने से राज्यसभा की दहलीज के भीतर ही दफन कर दिया जा रहा है। यानि समग्रता में देखें तो इस समय हर पक्ष खुद को निरीह, मासूम व निर्दोष बताते हुए विरोधी पक्ष पर अपने खिलाफ साजिश रचने का इल्जाम लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। अपनी नजर में सभी बेहद भोले-भाले और सीधे-सादे हैं। कांग्रेसी इतने भोले कि अदालत के समन को भी प्रधानमंत्री कार्यालय की साजिश मानकर संसद का चक्का जाम कर देते हैं। अब कौन इनसे पूछे कि इसमें सरकार या संसद क्या कर सकती है। इसी प्रकार सत्तापक्ष भी इतना मासूम है कि संसद में शांति का माहौल ना बन रहा हो और उसके द्वारा प्रस्तावित विधेयकों को बाकियों का समर्थन नहीं मिल रहा हो तो वह इसे विरोधियों द्वारा प्रतिशोध की भावना के तहत किया जा रहा विरोध मान बैठता है। अब इन्हें कौन याद दिलाये कि जब ये निचले सदन में लोकसभा की बहुमत का लाभ लेकर वहां अपनी मनमानी करेंगे तो विरोधी पक्ष भी इन्हें राज्यसभा में मनमाना जवाब देगा ही। वैसे भी सदन में शांति व सहमति कायम करने की जिम्मेवारी तो इनकी ही है जिसके लिये अव्वल तो गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता और अगर कभी पानी नाक से ऊपर उठने के बाद कुछ हाथ-पैर मारा भी जाता है तो देर से हुई इस क्रिया पर नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सामने आती है। खैर, अपनी कमियां, खामियां और गलतियां स्वीकारना किसी को गवारा नहीं है। सबको शिकायत है कि विरोधी पक्ष उसके खिलाफ राजनीतिक बदले की भावना के तहत कार्रवाई कर रहा है। हर जगह बदले का ही बोलबाला है। आलम यह है कि किसी को जुकाम भी आये तो नजला विरोधियों पर ही गिरता है। ऐसे में आम लोगों की स्थिति वाकई बड़ी विचित्र हो चली है। किसको वह सही माने और किसको गलत। विपक्ष संसद ना चलने दे तो भी नुकसान देश का ही और सरकार अगर मनमानी करे तो उसका खामियाजा भी देश को ही उठाना पड़ेगा। यानि पक्ष-विपक्ष की चक्की में पिस रहा है देश और देश की असली समस्याएं हाशिये पर पड़ी अपनी अनदेखी का रोना रो रही हैं। ऐसे में देश के आम लोगों के दिल की आवाज भी अदम गोंडवी साहब के इस शेर में ही छिपी हुई महसूस हो रही है कि ‘सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिये, गर्म रखें कब तलक नारों से दस्तरखान को।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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