‘मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’
नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि ‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हर लेहीं।’ तभी तो बुरा वक्त आने पर खुद से ही ऐसी गलतियां होनी शुरू हो जाती हैं जिसका परिणाम बेहद ही नकारात्मक निकलता है। मिसाल के तौर पर इन दिनों अपनों से लेकर परायों तक के निशाने पर आये दिख रहे अरूण जेटली सरीखे मौजूदा दौर के चाणक्य कहे जानेवाले नेता ने भी विपरीत व असहज स्थिति में उलझने के बाद एक के बाद लगातार इतनी गलतियां कर दी हैं कि इसे अपने पैर पर खुद कुल्हारी मारना ही माना जाएगा। बीते कई सालों से जिन आरोपों के पुलिंदे को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए कीर्ति आजाद द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों से जेटली का बाल भी बांका नहीं हो रहा था उन्ही आरोपों की चंद चिंदियां अरविंद केजरीवाल के दल एएपी द्वारा सार्वजनिक तौर पर उड़ाये जाने के बाद से ही परिस्थितियों ने ऐसी पलटी मारी है कि अब सियासी हलकों में उनकी इमानदारी व शुचिता पर गंभीर सवालिया निशान लगने शुरू हो गये हैं। कोई उनके खिलाफ लगाये जा रहे आरोपों की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराये जाने की मांग कर रहा है तो कोई उन्हें निर्दोष साबित होने तक अपने पद का परित्याग करने की सलाह दे रहा है। एएपी ने दिल्ली की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए आरोपों की जांच के लिये आयोग गठित कर दिया है वहीं दूसरी ओर बकौल प्रधानमंत्री, कांग्रेस ने इस मसले को तूल देकर सरकार की छवि पर भ्रष्टाचार की कालिख चस्पां करने का अभियान छेड़ दिया है। इसमें संगठन व सरकार ने औपचारिक तौर पर जेटली के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने में कोई कोताही नहीं बरती है और संसद के शीतसत्र का अवसान होने के फौरन बाद ही कीर्ति को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिये संगठन से निलंबित करते हुए उन्हें चैदह दिनों के भीतर इस बात का जवाब देने के लिये कहा गया है कि क्यों ना उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया जाये। यानि संगठन ने कीर्ति पर सख्ती की तलवार चला दी है और जेटली ने भी खुद पर भ्रष्टाचार की कालिख उछालनेवालों पर दस करोड़ रूपये की मानहानि का दावा अदालत में दायर कर दिया है। जाहिर है कि इन तथ्यों के नजरिये से देखा जाये तो ना सिर्फ सरकार से लेकर संगठन तक ने जेटली के पक्ष में मजबूत किलेबंदी कर दी है बल्कि विरोधियों को अदालत में घसीटकर जेटली ने अपनी नैतिक व व्यावहारिक शुचिता प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन मसला यह है कि सियासत सिर्फ तथ्यों पर निर्भर नहीं होती। इसमें छवि का बड़ा महत्व होता है। मोदी सरीखे नेता अपने पूरे चुनावी अभियान में एक बार भी जयश्रीराम का नारा नहीं लगाने के बावजूद हिन्दू हृदय सम्राट माने जाते हैं जबकि राम मंदिर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभानेवाले लालकृष्ण आडवाणी को 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यकों ने सिरे से नकार देना ही बेहतर समझा। मौजूदा मामले में भी जब तक जेटली ने खुद पर लग रहे आरोपों को गंभीरता से नहीं लिया तब तक कीर्ति के आरोप भी बासी लग रहे थे और ‘मारो और भागो’ की सियासत करनेवाले केजरीवाल को भी इस मामले में अधिक गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। लेकिन जैसे ही जेटली ने जुलूस के साथ जाकर आरोप लगानेवालों पर अदालत में मानहानि का दावा किया वैसे ही यह पूरा मामला समूचे देश में चर्चा का विषय बन गया। यहां तक कि भाजपा संगठन के भीतर भी इस मामले के उछलने से कईयों का दिल बाग-बाग हो गया। तभी तो जब संसद में जेटली के खिलाफ औपचारिक तौर पर अपनी बात रखने के लिये कीर्ति ने शून्यकाल में अपने दिल की बात कहने के हक का इस्तेमाल किया तो उस दौरान पार्टी के किसी सांसद ने दिखावे के लिये भी उनको रोकना या टोकना जरूरी नहीं समझा। अब आलम यह है कि जेटली की नैतिकता, शुचिता व इमानदारी पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। कोई भी यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि उनके डीडीसीए का अध्यक्ष रहते हुए 140 करोड़ की लागत से तैयार हुए विश्वस्तरीय फिरोजशाह कोटला स्टेडियम के निर्माण में कोई घपला-घोटाला नहीं हुआ है। यानि तथ्यों के आधार पर जेटली भले ही खुद को मजबूत मान रहे हों लेकिन उनकी छवि पर तो बट्टा लगा ही है। अब बाकी मुद्दे गौण हैं और जेटली की शुचिता पर राष्ट्रीय बहस जारी है। पार्टी में भी अब यह बहस तो शुरू होगी ही कि क्या किसी नेता पर सिर्फ इसलिये उंगली नहीं उठायी जा सकती क्योंकि वह अपने दल का है? राष्ट्रहित को तरजीह देते हुए उसके खिलाफ उपलब्ध भ्रष्टाचार से जुड़े तथ्यों को सार्वजनिक करने पर अगर पार्टी से निलंबन व निष्कासन का सामना करना पड़े तो ‘राष्ट्र प्रथम, संगठन दोयम और स्वयं निम्नतम’ के नारे का दिखावा क्यों? यानि इस मामले में जितने भी कदम उठाये गये उनका असर अब यह हुआ है कि अव्वल तो भ्रष्टाचार में जेटली की संलिप्तता का मसला हर खासोआम की जुबान पर चढ़ गया है और दूसरे संगठन में वैचारिक व सैद्धांतिक स्तर पर नयी बहस व टकराव की स्थिति पैदा हो गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो कीर्ति को संगठन से भले ही निकाल दिया जाये लेकिन संगठन व सरकार की छवि पर लगा दाग अब लगातार पुख्ता ही होता जाएगा और जेटली के लिये स्थितियां दिनोंदिन असहज ही होती चली जाएंगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’
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