मंगलवार, 2 मई 2017

‘फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं’

‘फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं’


‘जिनको मतलब नहीं रहता वे सताते भी नहीं, जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं, मुंतजिर हैं दमे-रूखसत कि ये मर जाए तो जाएं, फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं।’ इन चंद पंक्तियांे को मौजूदा सियासी हालातों के साथ जोड़कर देखें तो ऐसा लगता है मानो दाग देहलवी साहब ने अपनी लेखनी से उन बुजुर्गों की अंदरूनी फितरत ही बताई है जो ना खुद सुकून से जीने के ख्वाहिशमंद हैं और ना दूसरों को चैन से जीने देना चाहते हैं। उनकी नजर में दुनियां की पूरी व्यवस्था के केन्द्र में वे ही हैं और जो वे सोचते हैं सिर्फ वही सही है, बाकी सब गलत। अपनी सोच-समझ से अलग वे ना तो कुछ सुनने-समझने की जहमत उठाना गवारा करते हैं और ना किसी भी सूरत में यह मानने के लिए राजी होते हैं कि उनकी बात नहीं मानने वाला भी सही हो सकता है। मिसाल के तौर पर अन्ना हजारे को ही देखें तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से लेकर दिल्ली नगर निगम का चुनाव परिणाम सामने आने तक उन्होंने अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को जिस तरह से लगातार अपने सीधे निशाने पर रखा है उससे निश्चित तौर पर खुद को ‘दूसरा गांधी’ बताने के उनके दावे का खोखलापन की जाहिर हुआ है। माना कि अरविंद ने जन-लोकपाल आंदोलन के मंच को राजनीति के लिए अपना आधार बनाने के क्रम में अन्ना की सौ फीसदी सहमति लेना जरूरी नहीं समझा, लेकिन इस तथ्य को भी तो भुलाया नहीं जा सकता है कि जन-लोकपाल आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद ही थे और उन्होंने ही आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिए इसकी मशाल अन्ना के हाथों में सौंपी थी। यानि अन्ना को जिस अरविंद ने अपने आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर सौंपी उस पर अगर अन्ना यह इल्जाम लगा रहे हैं कि उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए उनके आंदोलन का मंच ‘हाईजैक’ कर लिया तो इससे अधिक हास्यास्पद बात कोई दूसरी नहीं हो सकती। वास्तव में अन्ना ने तो खुद ही अपने आप को इस्तेमाल करने का मौका अरविंद को उपलब्ध कराया और जब तक अरविंद की राह से वे सहमत रहे तब तक उनका साथ बना रहा लेकिन जब अरविंद ने आंदोलन को सियासत का माध्यम बना लिया तो वे उससे अलग हो गए। यानि अरविंद के फैसले से असहमत होकर जब अन्ना ने उस मंच से खुद को अलग कर लिया तब उन्हें अरविंद के मामलों से कोई मतलब भी नहीं रखना चाहिए था। लेकिन ऐसा ना करके अन्ना ने अरविंद के जले पर नमक छिड़कने का कोई भी मौका आज तक अपने हाथों ने जाने नहीं दिया है। नतीजन अगर केजरीवाल के सबसे करीबी सहयोगी मनीष सिसोदिया का सब्र कथित तौर पर जवाब दे गया और उन्होंने अन्ना को धोखेबाज से लेकर भाजपा का एजेंट तक बतानेवाले ट्वीट को रि-ट्वीट कर दिया तो इसके लिए उन्हें कतई गलत नहीं कहा जा सकता है। हालांकि सियासी नफा-नुकसान को तौलने के बाद मनीष ने अपना एकाउंट हैक कर लिए जाने की दलील देते हुए अन्ना की शान में कतई गुस्ताखी नहीं करने का संकल्प भी दोहराया है लेकिन सच यही है कि जिस तरह से लगातार अन्ना ने केजरीवाल की छवि खराब करने और उन्हें धोखेबाज, लालची व तानाशाह साबित करने का प्रयास जारी रखा है उसके मद्देनजर अगर केजरीवाल का कोई समर्थक अन्ना पर निशाना साधे तो इसकी जिम्मेवारी निश्चित तौर पर अन्ना की ही मानी जाएगी। वास्तव में देखा जाए तो अक्सर समाज में इस बात की बड़ी चर्चा होती है कि बुजुर्गों को वह सम्मान और स्थान नहीं मिल पा रहा है जिसके वह हकदार हैं। हालांकि यह चर्चा कोई नई नहीं है बल्कि पीढ़ियों के बीच मतभेद व टकराव का सिलसिला सनातन काल से बदस्तूर जारी है जिसमें बुजुर्गों को सही और नयी पीढ़ी को गलत ठहराने की परंपरा भी लगातार चलती आ रही है। लेकिन सवाल है कि ऐसे बुजुर्गों को गलत क्यों ना कहा जाए जो नई पीढ़ी की सोच के साथ तालमेल बिठाते हुए उसके अनुरूप ढ़लने की कोशिश करने के बजाय अपनी पुरानी सोच के हिसाब से मौजूदा दौर को हांकने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। खुद के हितों को सर्वोपरि मनवाने की जिद छोड़कर अगर अन्ना ने केजरीवाल को कल्पना के अनुरूप उड़ान भरने की छूट देते हुए सफलता का आशिर्वाद दिया होता तो उन्हें दिल्ली सरकार की ओर से निश्चित तौर पर वैसा ही स्थान व सम्मान मिलता जैसा पंडित नेहरू की सरकार ने महात्मा गांधी को दिया था। लेकिन जब केजरीवाल के लिए अन्ना गांधी नहीं बन पाए तो स्वाभाविक तौर पर अन्ना के लिए केजरीवाल भी नेहरू नहीं बन सकते। ऐसा ही मामला लालकृष्ण आडवाणी के साथ भी देखा जा रहा है जो नरेन्द्र मोदी के लिए गांधी नहीं बन पाए नतीजन उनकी हालत भी अन्ना से बेहतर होने की उम्मीद करना व्यर्थ ही है। हालांकि मुलायम सिंह यादव अवश्य अखिलेश यादव के लिए शुरूआती दौर में गांधी बनकर सामने आए लेकिन बाद में उन्होंने भी वही राह पकड़ ली जो अन्ना ने पकड़ी हुई है। नतीजन पुत्र होने के नाते अखिलेश के ना चाहते हुए भी उनकी हालत अन्ना जैसी हो ही गयी है। यानि समग्रता में देखें तो नई पीढ़ी नाहक ही पहले भी बदनाम थी और आज भी है, जबकि अपनी दुर्गति व बेकद्री की पूरी जिम्मेवारी अन्ना सरीखे बुजुर्गों की ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

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