मंगलवार, 30 मई 2017

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ यह रचना है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की। जो बेशक बीते दशकों के कालखंड में तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई थी। लेकिन इसकी प्रासंगिकता जितनी मौजूदा समय में दिख दे रही है उतनी शायद उस वक्त भी ना रही हो, जब यह कविता कागज पर अवतरित हुई थी। आज वाकई अपराध का भागी सिर्फ व्याघ्र नहीं दिख रहा। दरअसल व्याघ्र की तो प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्ति ही है शिकार करके अपना भरण-पोषण करने की। लिहाजा बाघ-शेर तो शिकार करेंगे ही और राजनीति दल सियासत करेंगे ही। इसके लिए उन्हें यह कहना कि फलां मसले पर सियासत मत करो काफी हद तक ऐसा ही है जैसे बाघ-शेर को यह समझाया जाए कि वह अमुक जीव का शिकार ना करे। वास्तव में देखा जाए तो यह संभव ही नहीं है कि जन-जुड़ाव के मसले पर राजनीति ना हो। बल्कि जो मसला आम लोगों से जितना अधिक जुड़ा होगा उस पर राजनीति भी उतनी ही अधिक होगी। अलग-अलग पक्ष होंगे, सबके अलग विचार होंगे और सबका अलग नजरिया होगा। जिसे जिस नजर से देखना मुनाफे का सौदा महसूस होगा वह मसले को उसी नजर से देखेगा। लिहाजा किसी भी मामले को तूल देने की कोशिश करनेवाली पार्टी को इसके लिए कोसना तो बेकार ही है। वास्तव में कोसे जाने के हकदार और असली अपराधी तो वे हैं जो भले ही वोटों की राजनीति ना करते हों लेकिन सही को सही और गलत को गलत कहने की पहल तब करते हैं जब उन्हें अपना उल्लू सीधा होता हुआ नजर आए। वर्ना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा कर वातावरण से अलग-विलग रहना ही बेहतर समझते हैं। ऐसे लोगों ने ही समाज को आज इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां किसी भी मसले की वही तस्वीर दिखाई पड़ती है जो राजनीतिक पार्टियां दिखाना चाहती हैं। राजनीति से अलग हटकर कहीं कोई बात ना तो सुनाई पड़ रही है और ना ही दिखाई दे रही है। जबकि यह सबको भली-भांति मालूम है कि फूट डालकर राज करने की जुगत तलाशने का नाम ही राजनीति है। लिहाजा मामला कश्मीर में हो रही पत्थरबाजी का हो या रामपुर में दलित बेटी के साथ अल्पसंख्यक समुदाय के आवारा लड़कों द्वारा की गई सरे-राह बदसलूकी का। मामला कन्नूर में बीच सड़क पर गाय काटकर पैशाचिक तरीके से बीफ पार्टी आयोजित करने का हो या भारत की पीठ में कटार घोंपने की कोशिश कर रहे पाकिस्तान की आवाम के साथ गलबहियां करने की मांग का। या फिर तीन तलाक का मसला ही क्यों ना हो। हर मामले में समाज का एक वर्ग कांग्रेस की अगुवाई वाले गैर-भाजपाई विपक्ष व इन्हें अपना खेवनहार समझनेवाले कथित अल्पसंख्यकवादी धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों के विचारों से प्रभावित है तो दूसरा वर्ग भाजपानीत राजग व इसके कथित राष्ट्रवादी समर्थक संगठनों के विचारों से। लिहाजा टकराव तो होना ही है। लेकिन इस टकराव को टालने और समाज को सही दिशा में आगे ले जाने की जिम्मेवारी समाज के जिस गैर-सियासी तबके पर है वह पूरी तरह खामोश है और खुद को तटस्थ दिखा रहा है। लेकिन अगर यह खामोशी और तटस्थता कश्मीर के पत्थरबाजों पर पैलेट गन का इस्तेमाल किए जाने या पत्थरबाजों की भीड़ के मुखिया को मानव ढ़ाल के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के मामले में भी कायम रहती तो इसे जायज माना जा सकता था। यही तटस्थता अगर बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा गऊ रक्षा का मसला उठाए जाने पर भी कायम रहती तो कन्नूर की वारदात के बाद छाई मुर्दानी चुप्पी को वाजिब कहा जा सकता था। लेकिन यह कैसी तटस्थता है जो बंगाल में रामनवमी का जुलूस निकालने से रोकने, सरस्वती पूजा के आयोजन की इजाजत नहीं मिलने या दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमा का विसर्जन करने से तीन दिनों तक रोके जाने के मामले में तो दिखाई पड़ती है लेकिन अगर सोनू निगम सरीखा कोई गायक अजान की आवाज से नींद में खलल पड़ने की बात कह देता है तो इस तटस्थता के सब्र का बांध टूट जाता है? यही वही तटस्थता है जिसे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह’ के नारे में अभिव्यक्ति की आजादी दिखाई पड़ती है लेकिन श्मशान की तुलना कब्रिस्तान से किया जाना सांप्रदायिक महसूस होता है। जल्लीकट्टू का मामला इसे निरीह पशु पर अत्याचार का दिखाई पड़ता है लेकिन चैराहे पर गाय काटकर बीफ पार्टी आयोजित किए जाने के मामले पर इसे सांप सूंघ जाता है। यही वह तटस्थता है जो सावरकर को तो महान मानना स्वीकार नहीं करता है लेकिन अफजल गुरू का बचाव करने में अपनी शान समझता है। आज इस तटस्थता से रामपुर की बहन भी इंसाफ की गुहार लगा रही है और यूपी के मुख्यमंत्री भी इसे ललकार रहे हैं। लेकिन मुर्दानी खामोशी टूटने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। कहीं से यह आवाज नहीं आ रही कि वाकई उन पाकिस्तानियों का पूरी तरह बहिष्कार किया जाए जो हमारे सैनिकों का सिर काटे जाने पर उफ तक नहीं करते। कोई गैर सियासी आवाज ना तो पत्थरबाजों के खिलाफ आ रही और ना तीन तलाक की पीड़िताओं के पक्ष में। ऐसे में कल को जब यह गैर-सियासी आवाज किसी अन्य मसले पर बुलंद होगी तो क्यों ना माना जाए कि वह तटस्थ नहीं है बल्कि अपने हितों का समीकरण साधने के लिए उठाई जा रही है। लिहाजा संभ्रांत बौद्धिकता का दिखावा करने वाला जो वर्ग अपनी सहूलियत के लिए समाज को संघर्ष व टकराव के दोराहे पर छोड़कर दूर से मजे ले रहा है उसे इस बात पर भी विचार कर लेना चाहिए कि वर्तमान भले ही उसकी किसी भूमिका की गवाही ना दे लेकिन इतिहास उसे निश्चित ही दोषी ठहराएगा और कतई माफ नहीं करेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

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