सोमवार, 10 अप्रैल 2017

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’


बाजारू बावर्चीखाने केे पकवानों को सेहत के लिये नुकसानदेह बताए जाने की सबसे बड़ी वजह है पाव भर की मुर्गी को सवा किलो मसाले में पकाया जाना। स्वाभाविक है कि ऐसे खाने में सिर्फ मसाले का ही जायका मिलेगा। मुर्गी की महक तो गायब ही हो जाएगी। इन दिनों यही हो रहा है देश के सियासी बावर्चीखाने में। असली मसलों पर बेमानी मसाले की इतनी मोटी परत चढ़ाई जा रही है कि मसले नजर ही नहीं आ रहे और मसाले मैदान मार रहे हैं। नतीजन बहस का नतीजा सिफर रहना स्वाभाविक ही है। मिसाल के तौर पर शिवसेना के सांसद रविन्द्र गायकवाड़ के साथ हुए एयर इंडिया के विवाद में गायकवाड़ की गलती यही थी कि वे खुद पर काबू नहीं रख पाए और उन्होंने गुस्से में आकर चप्पल चला दिया। वर्ना एयर इंडिया ने जिस तरह से इन दिनों मनमानी की मिसाल कायम की हुई है उसकी सर्वसम्मति से संसद में निंदा होनी तय ही थी बशर्ते गायकवाड़ ने चप्पल चलाने के बजाय इस मसले को संसद में उठाया होता। एयर इंडिया की कार्यप्रणाली का एक नमूना पिछले पखवाड़े लोकसभा अध्यक्षा का बैगेज गायब हो जाने के मामले में भी दिखाई दिया जिसमें एयर इंडिया ने ना तो बुक किए गए बैगेज के सुरक्षा की जिम्मेवारी स्वीकारी, ना सीसीटीवी की फुटेज खंगालने की जहमत उठाई और ना ही बैगेज को उठा ले जाने वाले के खिलाफ कोई एक्शन लेना जरूरी समझा। गायकवाड़ के मामले में पचास हजार से अधिक की रकम का बिजनेस क्लास का टिकट देकर एयर इंडिया ने उन्हें ऐसे विमान में बैठा दिया जिसमें सिर्फ उस इकोनोमी क्लास की सीटें की उपलब्ध थीं जिसे पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के रसूखदार मंत्री शशि थरूर ‘कैटल क्लास’ करार दे चुके हैं। एयर इंडिया की इस मनमानी का विरोध करने के नतीजे में सार्वजनिक तौर पर अपशब्द व अपमान सहन करना उनसे संभव नहीं हो पाया और वे गुस्से में चप्पल चला बैठे। इसके बाद एयर इंडिया की मनमानी के मसले पर चप्पल का मसाला इस कदर हावी हुआ कि आखिरकार गायकवाड़ को लिखित माफी मांग कर एक ऐसे मामले का पटाक्षेप कराना पड़ा जिसमें वास्तविक पीड़ित वे खुद ही थे। मसलों की महक पर मसाले की मादकता हावी हो जाने के ऐसे तमाम मामले इन दिनों खुली आंखों से स्पष्ट देखे जा सकते हैं। मसलन अलवर में कथित गौ-रक्षकों की पिटाई से हुई गौ-तस्कर की मौत के मामले में भी असली मसला गौ-हत्या पर लगे प्रतिबंध को प्रभावी तौर पर लागू करने में प्रशासन को हासिल हो रही विफलता का ही है। लेकिन यह मुद्दा बहुसंख्यकों की गुंडागर्दी के कारण हुई अल्पसंख्यक की मौत का बनकर रह गया है और पूरी बहस से गौ-हत्या पर रोक के लिए बने कानून की विफलता सिरे से नदारद है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर कराई गई तालाबंदी के मामले में भी लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान का असली मसला बहस से बाहर है और इस पूरे मामले को ऐसे मनगढ़ंत मसालों में गर्क कर दिया गया है मानो यूपी की योगी सरकार लोगों के खान-पान, रहन-सहन और परिधान-परंपरा को मनमाने तरीके से नियंत्रित करना चाहती है। ऐसी ही तस्वीर यूपी में एंटी रोमियो दस्ते की तैनाती के मामले में भी देखी जा रही है जिसमें बहन-बेटियों की पीड़ा और तकलीफ से जुड़े असली मसले की अनदेखी करते हुए बहस छेड़ दी गई इस दस्ते के नामकरण को लेकर। मामले में मसाले का इस हद प्रयोग किया गया कि आवारा व सड़कछाप मनचलों की तुलना भगवान कृष्ण द्वारा बचपन में की गई उन शरारतों के साथ कर दी गई जिसे उन्होंने 12 वर्ष की उम्र के बाद कभी अंजाम नहीं दिया। योगी सरकार के फैसले का मजाक उड़ाते हुए यहां तक कहा गया कि पहले सुरक्षा के लिए बहन-बेटियां भाई को साथ लेकर घर से निकलती थीं और अब भाईयों को अपनी रक्षा के लिए बहनों के साथ निकलना पड़ रहा है। ये तमाम कुतर्क सिर्फ इसलिए ताकि असली मसले पर बहस ना छिड़ सके। इसी प्रकार तीन तलाक की कुरीति के कारण महिलाओं को झेलनी पड़ रही यातना के मसले को दबाने के लिए कभी समान नागरिक संहिता का विघटनकारी मसाला इस्तेमाल किया जा रहा है तो कभी पर्सनल लाॅ और शरियत की सांप्रदायिक बहस छेड़ी जा रही है। मसलों को मसाले में डुबो दिए जाने के कारण ना तो उस आम उपभोक्ता का दर्द सामने आ रहा जिसे 45 रूपये की दर से चीनी खरीदनी पड़ रही है और ना ही उन गन्ना किसानों के भुगतान की समस्या बहस के केन्द्र में आ पा रही है जिन्हें उनका हक दिलाने के लिए योगी सरकार को मैदान में कूदना पड़ा है। अलबत्ता मसले पर मसाले को हावी करके सरकार के उस फैसले को आलोचना के केन्द्र में लाने की कोशिश की जा रही है जिसके तहत मोदी सरकार ने चीनी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करके उसकी कीमतों को काबू में रखने के मकसद से 50 लाख टन चीनी के शुल्क मुक्त आयात को हरी झंडी दिखाई है। ऐसे तमाम मामलों को समग्रता में टाटोलने पर चुटकी भर मसले में मुट्ठी भर मसालों का बेहिसाब इस्तेमाल किए जाने की जो तस्वीर सामने आ रही है उससे मसलों का हल कतई नहीं निकल सकता। अलबत्ता इफरात में मसालों का इस्तेमाल करने वाली सियासत को हजम करना लोगों के लिए अवश्य तकलीफदेह होता जा रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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