‘मौजूदा परिणामों पर भविष्य की परिकल्पना’
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक गीता के उस ज्ञान की तरह दिखाई दे रहा है जिसमें कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा था कि युद्ध का परिणाम तो पहले से ही तय है लेकिन यह उस पर निर्भर है कि वह युद्ध में हिस्सेदारी करके श्रेय का सेहरा अपने सिर पर बांधना पसंद करता है अथवा रण से भागकर अपयश का भागी बनना बेहतर समझता है। इन दिनों ऐसा ही माहौल दिखाई दे रहा है आगामी दिनों में होने जा रहे राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर जिसका अंतिम परिणाम हालिया दिनों में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पहले ही तय कर दिया है। लेकिन परिणाम तय हो जाने के बावजूद लड़ाई में हिस्सेदारी करके इन तात्कालिक परिणामों का दूरगामी फायदा उठाने का विकल्प सभी पक्षों के समक्ष स्पष्ट तौर पर खुला हुआ है। इसका दिलचस्प पहलू यह है कि तयशुदा परिणामों की बेहतर समझ होने के बावजूद ना तो सत्ता पक्ष ने इस चुनाव को अपना निर्णायक साध्य समझने की गफलत पाली है और ना ही विपक्ष ने भविष्य का लक्ष्य साधने के लिए इसे साधन के तौर पर इस्तेमाल करने से परहेज बरतना उचित समझा है। बल्कि दोनों ही खेमे इस अवसर का उपयोग करते हुए नए सिरे से सियासी ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे दिख रहे हैं। जहां एक ओर भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके 33 दलों को एक मंच पर लाकर केन्द्र सरकार की मजबूती का मुजाहिरा किया है वहीं दूसरी ओर साझा मसलों पर सहमति कायम करके कांग्रेस ने भी 13 दलों की एकजुटता का प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरती है। कहने को तो भाजपा ने अपने सहयोगी व समर्थक दलों को इसलिए रात्रि भोज पर आमंत्रित किया ताकि सरकार के तीन साल के कामकाज के बारे में साथियों की राय जानी जाए जबकि कांग्रेस ने राष्ट्रपति से मोदी सरकार की तानाशाही की शिकायत करने के बहाने विरोधी एकता का सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा किया। हालांकि किसी भी पक्ष ने अब तक यह बताने की जहमत नहीं उठाई है कि अचानक ऐसी कौन सी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयीं कि तीन साल तक साथियों व सहयोगियों से निर्धारित दूरी बनाकर चलने के बाद अचानक सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की क्या जरूरत पड़ गयी। लेकिन कोई कहे ना कहे, पर सच तो यही है कि अब दोनों ही पक्षों को इस बात का बेहतर एहसास हो चला है कि दो साल बाद होने वाले आम चुनावों में अगर अपनी स्थिति मजबूत करनी है तो इसके लिए अधिक से अधिक दलों को अपने साथ जोड़ना ही होगा। इसके लिए अभी राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनाव के रूप में मौका भी है और दस्तूर भी। जिसका लाभ उठाकर अपनी शक्ति व सामथ्र्य में इजाफा करने की बेहतर शुरूआत की जा सकती है। यही वजह है कि राष्ट्रपति चुनाव अब सिर्फ बेहतर प्रथम नागरिक के चयन की प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। बल्कि इस मौके को भुनाते हुए सत्ता पक्ष भी अधिक से अधिक दलों को अपने नजदीक खींचने की कोशिश करेगा और संयुक्त विपक्ष की ओर से भी किसी ऐसे चेहरे को आगे किया जाएगा जिसके समर्थन में अधिकतम दलों को एक मंच पर लाया जा सके। यानि इतना तो तय है कि इस बार राष्ट्रपति का चयन सर्वसम्मति से हर्गिज नहीं होने जा रहा। वह भी तब जबकि सबको मालूम है कि भाजपा अपने बलबूते पर ही मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने की पूरी क्षमता रखती है। आज की तारीख में 13 सूबों में भाजपा का प्रत्यक्ष शासन है जबकि चार राज्यों में उसके समर्थन से सहयोगी दलों की सरकार चल रही है। लिहाजा भाजपा का मकसद सिर्फ मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने तक ही सीमित होता तो उसे 33 दलों को अपने साथ दिखाने के लिए रात्रि भोज का आयोजन करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इसी प्रकार विपक्ष के प्रत्याशी की सुनिश्चित हार स्पष्ट दिखाई पड़ने के बावजूद कांग्रेस की ओर से यह रणनीति नहीं अपनाई जाती कि सत्ता पक्ष की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का कोई उम्मदवार अवश्य खड़ा किया जाए। अगर कांग्रेस की मंशा सिर्फ देश को बेहतर राष्ट्रपति दिलाने की होती तो उसने यह विकल्प खुला रखा होता कि अगर सरकार ने उसके मनमाफिक व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया तो वह उसका समर्थन भी कर सकती है। लेकिन कांग्रेस ने भी सरकार की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी का निश्चित तौर पर विरोध करने की रणनीति अपनाई है और सरकार का संचालन करनेवाली भाजपा ने भी साफ संकेत दे दिया है कि वह तमाम सहयोगियों से सहमति लेकर ही किसी को इस पद के लिए आगे करेगी। यानि राष्ट्रपति पद के चुनाव में आंकड़ों के आधार पर अभी से नतीजा निश्चित दिखाई पड़ने के बावजूद अगर टकराव की स्थिति बन रही है तो उसके पीछे सीधी राजनीति यही है कि ‘राष्ट्रपति चुनाव तो महज बहाना है, 2019 के आम चुनाव पर निशाना है।’ ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को अधिकतम ऊंचाई तक ले जाने के लिए कांग्रेस को मुख्यधारा की सियासत में अलग-थलग करने की भाजपा की कोशिशें सफल होती हैं या फिर हारी हुई लड़ाई को आधार बनाकर भावी जीत की राह पर आगे बढ़ने में कांग्रेस को कामयाबी मिलती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @Navkant Thakur
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