गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

‘एक हाथ से बजे न ताली’

‘एक हाथ से बजे न ताली’

गुजरात विधानसभा के चुनाव प्रचार पर विराम लगने के बाद अब थोड़ी शांति और आराम का समय उन सभी दलों के शीर्ष नेताओं को मिल गया है जो लंबी, थकाऊ और काफी हद तक उबाऊ चुनाव प्रचार में जी-जान से जुटे हुए थे। वाकई इस दौरान उन्हें सांस लेने की फुर्सत भी बमुश्किल ही मिल पा रही थी। आखिर मामला ही ऐसा था जिसमें एक तरफ कांग्रेस का भविष्य दांव पर था और दूसरी तरफ मोदी लहर का भविष्य। लिहाजा कांटे की टक्कर तो होनी ही थी। हालांकि चुनाव परिणाम का पलड़ा किस ओर झुकेगा इसके बारे में सबकी अपनी उम्मीदें हैं, अपने समीकरण हैं और अपने कयास हैं। स्वाभाविक तौर पर चुनावी नतीजों का बेसब्री से इंतजार भी सबको है। लेकिन चुनाव परिणाम के लिए हो रहे इंतजार के बीच एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि टक्कर जोरदार हुई। जमकर प्रचार हुआ और दोनों ही पक्ष ने जमीन पर अपना जलवा बिखेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस हो या भाजपा। दोनों ही दलों का पूरा शीर्ष नेतृत्व जमीन पर जमा हुआ नजर आया। पिछले 22 सालों से लगातार सूबे की सत्ता पर काबिज भाजपा को कांग्रेस ने किस कदर टक्कर दी है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनावों तक दिल्ली से प्रचारकों का आयात करने में संकोच करने वाली गुजरात भाजपा इकाई ने इस बार संगठन से लेकर सरकार तक के तमाम चेहरों को सूबे की सियासत में झोंक दिया। कोई नाम ऐसा नहीं बचा जिसने गुजरात जाकर पसीना ना बहाया हो। जाहिर तौर पर ऐसी जोरदार टक्कर में लोगों की दिलचस्पी होनी ही थी। लेकिन दुर्भाग्य से इस पूरी सियासी रस्साकशी ने ना सिर्फ गुजरात के मतदाताओं को बल्कि देश के आम लोगों को भी बुरी तरह निराश किया। यह चुनाव सही मायने में आम लोगों से जुड़ ही नहीं पाया। आम लोगों की समस्याएं सतह पर आ ही नहीं पाई। पूरा चुनाव प्रचार ऐसे आभासी और बेमानी मसलों पर केन्द्रित हो गया जिससे आम लोगों का कोई लेना देना ही नहीं है। कायदे से तो इतनी जोरदार सियासी रस्साकशी में जन सरोकार के मसलों पर ही जोरदार बहस होनी चाहिए थी। सत्तारूढ़ पक्ष को अपने अब तक के काम-काज का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना चाहिए था और विपक्ष को मौजूदा व्यवस्था व शासन-प्रशासन की कमियां-खामियां उजागर करते हुए अपनी ठोस भावी योजनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए थी। लेकिन हुआ इसके उलट। ना सत्ताधारियों को अपने काम-काज का हिसाब पेश करने के लिए मजबूर किया जा सका और ना ही आम जन सरोकार के मुद्दे चुनाव में हावी हो सके। बल्कि अश्लील सीडी से शुरू हुई चुनावी गरमाहट मंदिर यात्रा के माध्यम से आगे बढ़ी और अंतिम समय में आकर अटकी गाली-गलौज व आभासी राष्ट्रवाद पर। दोनों पक्षों ने नकारात्मक चुनाव प्रचार की इंतहा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किसी ने भी अपने उस पहलू को उजागर करके चुनाव प्रचार करने की कोशिश ही नहीं की जिससे प्रभावित होकर मतदाता उसकी ओर खिंचे चले आएं। बल्कि दोनों में इस बात की शर्त लगी दिखी कि कौन एक-दूसरे पर कितना अधिक कीचड़ उछाल सकता है। बात कभी निजी संबंधों को लेकर हुई तो कभी पहनावे को लेकर। पसंद-नापसंद पर भी कटाक्ष किए गए और मर्दानगी व नपुंसकता को भी जांच-परख का आधार बनाया गया। मेल-मुलाकातों को लेकर एक दूसरे पर निशाना साधा गया और अवकाश व पर्यटन की भी बात हो गयी। यहां तक कि कौन क्या खाकर काले से गोरा हो गया इस पर भी जोरदार चर्चा हुई। लेकिन किसी ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आम आदमी किस हाल में है। महंगाई ने किस कदर उसका जीना मुहाल किया हुआ है। विकास से रोजगार को जोड़ने में कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही। किसानों की बदहाली क्यों दूर नहीं हो रही। क्यों प्रधानमंत्री के गृह जिले में भी विकास का पूरा विस्तार नहीं हो पाया है। ऐसा कोई भी मुद्दा सिरे से उठ ही नहीं पाया जिससे आम आदमी सीधे तौर पर जुड़ सके। अलबत्ता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया के माध्यम से जन सरोकार से जुड़े कुल चैदह सवाल अवश्य किये। लेकिन उन सवालों को जब कांग्रेसियों और मीडिया ने ही तवज्जो नहीं दी तो सत्तापक्ष ही क्यों इस को लेकर गंभीरता दिखाता। जब पूछनेवाला ही गंभीर ना हो तो बतानेवाले को क्या गर्ज पड़ी है गंभीरता दिखाने की। अलबत्ता इस चुनाव में शुचिता व मर्यादा की धज्जियां उड़ाने में सबने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी तार-तार हुई और इस पद की गरिमा को बचाने की सोच कहीं भी नहीं दिखी। यहां तक कि भाजपा और कांग्रेस जहां बाहर एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते व टकराते दिखे वहीं अंदरूनी तौर पर इन्हें अपने संगठन के भीतर आपस में भी विभिन्न स्तरों पर जूझना पड़ा। खुल कर भले कोई इसे स्वीकार ना करे लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि कांग्रेस के भीतर भी राहुल को गुजरात को नाकाम करने की साजिशें जोरों पर चलती रहीं और भाजपाइयों का भी एक बड़ा तबका मोदी लहर की नाकामी में अपनी कामयाबी तलाशता दिखा। ऐसी बहुस्तरीय व बहुआयामी लड़ाई में शुचिता, प्रतिष्ठा और मर्यादा का तार-तार होना स्वाभाविक ही था। लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। लिहाजा सूबे के चुनाव को इस निचले व छिछले स्तर पर ले जाने के लिए सभी बराबर के ही दोषी हैं। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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