सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना’

‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना’


राहुल गांधी को औपचारिक तौर पर कांग्रेस की कमान सौंपे जाने की अब महज औपचारिकता ही बाकी रह गई है। पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी कह दिया है कि इस औपचारिकता को यथाशीघ्र पूरा करने में अब अधिक विलंब नहीं किया जाएगा। यानि प्रतीक्षा है तो सिर्फ शुभ मुहूर्त और लग्न की। लेकिन मसला सिर्फ लग्न-मुहूर्त का होता तो गुरूदासपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों के तत्काल बाद ही इस काम को अंजाम दे दिया गया होता। या फिर नांदेड़ के स्थानीय निकायों का नतीजा भी इस काम को अंजाम देने के लिए पर्याप्त था। लेकिन सवाल तो उस छुट्टी का है जो राहुल कब, किस लिए, कैसे और किससे मांगते हैं, यह किसी को नहीं पता। पता इतना ही चलता है कि राहुल भैया फिर चले गए छुट्टी पर। कई बार बता कर जाते हैं और कई बार बिना बताए। मगर जाते जरूर हैं। और जाने के क्रम में वे यह भी नहीं देखते हैं कि उनका जाना कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए कितना नुकसानदेह या फायदेमंद होगा। उनको जाना होता है और वे चल देते हैं। अपने जाने के लिए वे अक्सर जिस वक्त व माहौल को चुनते हैं उसके मद्देनजर हर कांग्रेसी के दिल से यही आवाज निकलती होगी जोे अनाड़ी फिल्म के लिए शैलेन्द्र साहब ने लिखा था कि, ‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना, कोई देखे... बन के तकदीरों का मिट जाना।’ वाकई, बनने की राह पर अग्रसर होने के बाद तकदीर की रेखाएं अचानक कैसे मिट जाती हैं और दिल के अरमान कैसे लुट जाते हैं, इसके सच्चे भुक्तभोगी असल में कांग्रेसी कुनबे से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़े लोग ही हैं। हर कांग्रेसी का दिल ही जानता है कि राहुल के अचानक छुट्टी पर चले जाने का नतीजा उनके लिए कितना नकारात्मक होता है। हालांकि परिस्थितियां जब अनुकूल थीं और विभिन्न सूबों से लेकर केन्द्र तक में कांग्रेस की सरकार थी तब उनके रहने या जाने पर ना तो किसी की खास नजर जाती थी और ना ही उससे पार्टी की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ता था। लेकिन वर्ष 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी का सूपड़ा साफ होने के बाद तमाम कांग्रेसियों की अपेक्षाएं व उम्मीदें राहुल पर आकर टिक गईं। सबको उनसे किसी करिश्मे की उम्मीद थी। लेकिन राहुल तो ठहरे राहुल... उनको क्या फर्क पड़ता है कि कौन उनसे क्या चाहता है और कौन उनके बारे में क्या सोचता है। उनको तो अपने मन की करनी थी, सो वे करते रहे। इसमें सबसे दिलचस्प बात यह है कि राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होते हुए भी अमूमन राहुल काफी हद तक सार्वजनिक जीवन के प्रति निश्चेष्ट व उदासीन ही रहते हैं। लेकिन जब उनको छुट्टी पर जाना होता है उससे कुछ दिन पहले से वे काफी सक्रिय हो जाते हैं। ऐसा लगता है मानो स्कूल का बच्चा अपनी छुट्टी का होमवर्क पूरा कर रहा हो। ताकि छुट्टी के दौरान पढ़ाई का झंझट ही ना रहे। तभी तो छुट्टी पर जाने से ठीक पहले उन्होंने मोदी सरकार को संसद से सड़क तक घेरते हुए भूमि अधिग्रहण कानून के मसले पर जमीन-आसमान एक कर दिया। ऐसा दबाव बनाया कि सरकार को प्रस्तावित कानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन इस आंदोलन की शुरूआत करके राहुल कहां नदारद हो गए यह किसी को पता नहीं चला। पता सिर्फ इतना चला कि वे छुट्टी मनाने चले गए हैं। नतीजन इस पूरे आंदोलन का श्रेय व राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलते-मिलते रह गया और बनती हुई तकदीर की रेखाएं अचानक मिट गईं। इसी प्रकार यूपी में खाट सभा करते-करते ही वे किधर खिसक लिए और कांग्रेस को सपा की सायकिल के कैरियर पर बिठाकर कहां निकल लिए यह किसी को पता नहीं चला। साथ ही बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन के गठन में निर्णायक मध्यस्थ की भूमिका निभाने के बाद पूरे चुनाव में राहुल कहीं नहीं दिखे। माना जाता है कि काम कितना ही जरूरी क्यों ना हो लेकिन राहुल के लिए अपनी छुट्टी से जरूरी कोई काम नहीं होता। नतीजन उनके धुर विरोधी उन्हें ‘पार्ट टाईम पाॅलिटीशियन’ कहकर उनका मजाक बनाते रहते हैं और सोशल मीडिया पर भी ‘आ गए राहुल, छा गए राहुल’ का नारा अक्सर बुलंद होता रहता है। अभी गुजरात चुनाव में कांग्रेस को चमकाने और दक्षिणी सूबों में पार्टी का विस्तार करने की पुरजोर कोशिशों में जुटे राहुल का इस सप्ताह सदेह दर्शन नहीं होना भी सोशल मीडिया में खूब चर्चित हो रहा है। लोग चटखारे लेने लगे हैं कि राहुल फिर छुट्टियां मनाने चले गए हैं। हालांकि सोशल मीडिया के माध्यम से वे लगातार सक्रिय हैं और खबरों में बने हुए हैं। लेकिन उनकी वास्तविक उपस्थिति आखिरी बार पिछले सप्ताह प्रणब मुखर्जी के पुस्तक विमोचन में ही दर्ज हो सकी। लिहाजा राहुल के कद का नेता अगर अचानक कहीं ना दिखे तो उनके बारे में कयासों व अटकलों का दौर शुरू होना स्वाभाविक ही है। वह भी तब जबकि उनकी छुट्टियों का इतिहास की ऐसा रहा हो कि किसी मामले को उफान पर लाकर खुद कपूर की तरह रंगमंच से काफूर हो जाएं। खैर, राहुल की छुट्टियों को लेकर जितने मुंह उतनी बातें तो हमेशा से होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी। लेकिन यह राहुल को ही तय करना होगा कि अपने मजे के लिए वे कांग्रेस और कांग्रेसियों को कब तक सजा दिलाते रहेंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

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