‘भीड़ के सामने दांव पर इंसानियत’
नवकांत ठाकुर
‘भीड़ तमाशा करे या भीड़ तमाशायी हो, दांव पर हर हाल में इंसानियत ही होती है।’ वाकई भीड़ का मनोविज्ञान अलग ही होता है। कायदे से तो इंसानों की भीड़ के जुटान में इंसानियत की भावना का उफान दिखना चाहिये। लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। इंसान जब भीड़ का हिस्सा बन जाये तो अक्सर उसके भीतर का इंसान गायब हो जाता है। उस पर हावी हो जाता है हैवान जिसके वशीभूत होकर वह जो ना कर गुजरे वह कम। अगर ऐसा नहीं होता तो दादरी के बिसराड़ा गांव में महज एक अफवाह को सुनकर इकट्ठा हुई भीड़ अधेड़ पिता व उसके युवा पुत्र को इस धराधाम से रूखसत करने पर हर्गिज उतारू नहीं होती। गनीमत रही कि जिस्म का हर पुर्जा तुड़वा लेने के बाद भी पुत्र के जिस्मानी पिंजड़े ने प्राण-पखेरू को आजाद नहीं होने दिया। लेकिन पिता का जीवन भीड़ की बलि चढ़ गया। अब ऐसी भीड़ को इंसानों का जुटान कहें भी तो कैसे? शर्मनाक यह है कि जो लोग भीड़ का हिस्सा नहीं थे वे भी अब इस पूरे मामले को जाति, मजहब व खान-पान सरीखे मसलों से जोड़कर अपनी अंदरूनी पाशविकता का मुजाहिरा करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। सतही तौर पर तो किसी को कोई सही लग सकता है और दूसरे को कोई और। लेकिन गहराई में झांकें तो भीड़ का तांडव समाप्त होने के बाद के पूरे घटनाक्रम में कोई ऐसा नहीं है जिसे दूध का धुला या पाक-साफ कहा जा सके। पीडि़त परिवार के लिये कुछ लोग हमदर्द बनकर खड़े हो गये हैं तो कुछ की हमदर्दी भीड़ के साथ जुड़ गयी है। दूसरी ओर जिस पुलिस प्रशासन पर भरोसा करके हमारा समाज चैन की नींद सोना चाहता है उसकी सोच-समझ का तो कहना ही क्या। उसकी पहली कोशिश तो पीडि़त पक्ष के भीतर व्याप्त हुई असुरक्षा की भावना को दूर करने की होनी चाहिये थी लेकिन उसने सबसे पहले यह मालूम करना निहायत आवश्यक समझा कि जिस अफवाह को सच मानकर भीड़ ने हैवानियत का तांडव किया उसके पीछे की सच्चाई क्या है। लिहाजा पुलिस ने पहला काम किया पीडि़त के खाने की जांच कराने का। वह तो गनीमत रही कि जिस भोजन को ग्रहण करने के इल्जाम में पीडि़त पक्ष को भीड़ का कोपभाजन बनना पड़ा वह बात जांच में सिरे से गलत पायी गयी। वर्ना अगर अफवाह सच साबित हो जाती तो पता नहीं पीडि़त पक्ष को ही अपराधी साबित करनेवालों का सैलाब भी आ सकता था। खैर, मसला यह है कि क्या किसी को केवल इस बात के लिये हलाक किया जा सकता है कि वह ऐसी चीज क्यों खा रहा है जो उसके मजहब में तो हलाल है लेकिन भीड़ का मजहब उसे हराम मान रहा है? क्या समाज में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का राज कायम होगा और गरीब की गाय कोई भी हांक ले जाये? फिर क्या जरूरत है कानून की या संविधान की। सरकार की या प्रशासन की। ऐसे में तो जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी दावेदारी। जहां जिस समुदाय की तादाद अधिक होगी वह किसी अन्य मजहब को माननेवालों पर भी अपनी सोच थोपने के लिये स्वतंत्र होगा। देश के किसी हिस्से में दुधारू मवेशी को काट कर खाना गुनाह माना जाएगा तो किसी अन्य हिस्से में मैला खानेवाले पशु को मारकर खानेवालों की खैर नहीं होगी। कहीं शाकाहारियों की भीड़ तांडव मचाएगी तो कहीं मांसाहारियों के दबाव में कंठी-माला का विसर्जन करना मजबूरी बन जाएगी। आखिर यह समाज किस दिशा में जा रहा है इसकी कभी तो फिक्र करनी ही होगी। क्या हम किसी को पीने-खाने, पहनने-ओढ़ने और अपने मजहब के मुताबिक आचरण करने की आजादी भी नहीं दे सकते। सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब नदारद है। जवाब तो तब मिले जब कोई अपनी जवाबदेही लेना गवारा करे। यहां तो हर कोई एक-दूसरे को आरोपों व इल्जामों में लपेट कर खुद को पाक-साफ साबित करने में जुटा हुआ है। पुलिस की मानें तो अचानक उठी अफवाह के कारण शुरू हुई हैवानियत के लिये तो समूचा समाज जिम्मेवार है। प्रदेश सरकार की मानें तो पूरा किया धरा केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का है जो समाज का माहौल बिगाड़कर अपनी राजनीति चमकाने में जुटी हुई है। भाजपा की मानें तो कानून व्यवस्था प्रदेश की सरकार के हाथों में है लिहाजा इस पूरे मामले की सीधी जिम्मेवारी उसकी ही है। इसके अलावा कांग्रेस व एएपी से लेकर बसपा व एमआईएम सरीखी तमाम तीसरी पार्टियां भाजपा व सपा को बराबर का दोषी मान रही हैं। उस पर तुर्रा ये कि पीडि़त पक्ष की मानें तो हमलावर जिस मजहब के थे उसी कौम के लोगों ने बचाने का भी काम किया, फिर किसे दोषी कहें और किसे बेगुनाह। यानि, हर किसी का एक बयान है और हर किसी की एक प्रतिक्रिया है। सबका अपना-अपना नजरिया है जिसमें केवल वही पाक-साफ व बेगुनाह है। लेकिन हकीकत यही है कि इस हैवानियत के हम्माम में सभी एक समान नंगे हैं और इंसानियत की हत्या में बराबर के भागीदार हैं। हर किसी को अपनी चिंता है। कोई अपना वोटवैंक बचाने में जुटा है तो कोई नयी जमीन तलाशने में। कोई अपनी नौकरी बचाने में जुटा है तो कोई अपना चेहरा। इस पूरी आपाधापी में जब कोई अपनी गलती मानना तो दूर बल्कि महसूस करना भी गवारा नहीं कर रहा हो तो ऐसे में खुद को कैसे तसल्ली दी जाये कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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