‘दूसरे की फतह के लिये तीसरों का मोर्चा’
नवकांत ठाकुर
अपने फायदे के लिये कोई दूसरों से लड़े तो इसमें अनोखा क्या है। मजा तो तब है जब दूसरे के फायदे के लिये तीसरों के बीच जंग छिड़े। दूसरे के फायदे के लिये जब कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलता है तो वह चर्चा का विषय बनता ही है। दूसरे के लिये किसी तीसरे द्वारा मोर्चा खोले जाने की कहानी कितनी दिलचस्प होती है इसका सहज अंदाजा रामायण की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है जिसमें दूसरे की पत्नी के लिये तीसरे से लोहा लेनेवाले हनुमान, जटायु व सम्पाती सरीखे किरदारों की कहानी भी है और सुग्रीव को राजपाट दिलाने के लिये नाहक ही बालि का वध कर देनेवाले राम की भी गाथा है। यहां तक कि दूसरे के साथ हो रहे अन्याय के लिये अपने कुल खानदान का विनाश करा देने के पीछे विभीषण का इसमें कोई निजी स्वार्थ रहा हो ऐसी आशंका आज तक किसी ने भी नहीं जतायी है। ऐसा ही मामला महाभारत का भी है जिसमें दूसरे को उसका हक दिलाने के लिये तीसरे पक्ष के समूल नाश में अगर श्रीकृष्ण सहायक नहीं बनते तो शायद यह लड़ाई होती ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि जब भी किसी दूसरे के हक में कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलने की पहल करता है तो वह मामला लोगों की दिलचस्पी के केन्द्र में आ ही जाता है। तभी तो इन दिनों प्रियंका को कांग्रेस की बागडोर दिलाने के लिये एमएल फोतेदार द्वारा लिखी किताब ‘द चिनार लिव्स’ के सार्वजनिक होने का भी बेसब्री से इंतजार हो रहा है और राहुल गाधी को कांग्रेस की कमान दिलाने के लिये दिग्विजय सिंह द्वारा खोला गया मोर्चा भी दिलचस्पी का केन्द्र बना हुआ है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि फोतेदार के दावे को सही मानते हुए कांग्रेस ने स्वर्गीय इंदिरा गांधी की इच्छा को पूरा करने के क्रम में प्रियंका को संगठन की बागडोर सौंप भी दी तो इससे बाकियों का भले जो भी नफा-नुकसान हो लेकिन फोतेदार को तो इससे कतई कोई फायदा नहीं होना है। वैसे भी फोतेदार की अब कोई फायदा लेने की उम्र भी नहीं बची है। काफी हद तक ऐसा ही मामला दिग्गी राजा का भी है जो राहुल को पार्टी की कमान दिलाने के लिये सांगठनिक व सार्वजनिक तौर लंबे समय से लगातार मोर्चा खोले हुए हैं। हालांकि उनका मोर्चा अब तक संगठन में राहुल के नाम पर सर्वसम्मति बनाने व राहुल विरोधियों को सामने आने के लिये उकसाने के अलावा ‘मैया’ पर ‘भैया’ को बड़ी जिम्मेवारी देने का दबाव बनाने में ही जुटा हुआ था। लेकिन जब से फोतेदार ने कांग्रेस के लिये राहुल को अस्वीकार्य करार देने के क्रम में राहुल के पक्ष में मोर्चा खोलनेवालों को सोनिया गांधी के चापलूस की संज्ञा से नवाजते हुए यह खुलासा किया है कि इंदिराजी प्रियंका में ही अपनी छवि देखती थीं और उन्हें ही परिवार की सियासी विरासत सौंपने के पक्ष में थीं, तब से दिग्विजय की बेचैनी बुरी तरह बढ़ गयी है। अब फोतेदार के जवाब में उन्होंने बेहद ही आक्रामक मोर्चा खोलते हुए यहां तक कह दिया है कि अध्यक्ष वही बनेगा जिसे सोनिया चाहेंगी। यानि ताजा तस्वीर के तहत अब राहुल और प्रियंका के पक्ष-प्रतिपक्ष में दिग्विजय और फोतेदार आमने-सामने आ गये हैं। वैसे भी पार्टी में ना तो राहुल के समर्थकों की कोई कमी है और ना ही प्रियंका में ही इंदिरा की छवि देखनेवालों की। लिहाजा ‘भाई-बहन’ के हित में मोर्चा खोलनेवाले तीसरों का टकराव आगे क्या स्वरूप लेगा यह कहना तो अभी मुश्किल है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि दूसरे के हित में जिन तीसरों ने मोर्चा खोलने की पहल की है उनको निजी तौर पर शायद ही कोई फायदा मिल सके। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि सियासत में अपने नुकसान की भरपाई करने के लिये दूसरे के कांधे पर बंदूक रखकर तीसरे को निशाना बनाने की परंपरा हमेशा से चली आ रही है। तभी तो भाजपा में भी जब यशवंत व शत्रुघ्न सरीखे लोगों को अपने नुकसान की भड़ास निकालनी होती है तो वे अपनी लड़ाई खुद लड़ने के बजाय लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के हित में पार्टी के मौजूदा निजाम पर चढ़ाई करने से भी परहेज नहीं बरतते हैं। यानि मामला यही दिखता है कि वे दूसरे के फायदे के लिये तीसरे से लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनका अपना कोई लोभ-लाभ नहीं छिपा है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ लिहाजा गहराई में उतर कर देखा जाये तो दूसरे के पक्ष में लड़नेवाले तीसरे भी अक्सर निष्पक्ष नहीं होते हैं। इस लड़ाई में उनका भी लोभ-लाभ छिपा ही रहता है। भले वह दिखे या ना दिखे। तभी तो प्रियंका के पक्ष में सोनिया के खिलाफ फोतेदार की वह टीस निकल रही है जिसके तहत मौजूदा दौर में उन्हें हाशिये पर रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है और दिग्विजय की वह चाहत भी सर्वविदित ही है जिसके तहत वे राहुल को आगे लाने की आड़ में अपनी छवि ‘किंग मेकर’ के तौर पर पुख्ता करना चाहते हैं। खैर, दूसरे के पक्ष में तीसरों की लड़ाई की कहानियों के उस पक्ष की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है जिसमें लड़ाई का मुख्य किरदार अक्सर रामायण की सीता की मानिंद आखिरकार खुद को ठगा हुआ ही महसूस करता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’
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