मंगलवार, 6 सितंबर 2016

दलित-मुस्लिम एका की काल्पनिक परिकल्पना

दलित-मुस्लिम समीकरण के अफसाने की हकीकत


भारत की राजनीति में दो धाराएं ऐसी हैं जो ना तो कभी सूखी हैं और ना कभी सूख सकती हैं। एक दलित सरोकार की धारा और दूसरी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बहनेवाली मुस्लिम तुष्टिकरण की धारा। इन दोनों धाराओं के अविरल-निर्मल प्रवाह की वजह है देश की आबादी में इनकी वह हिस्सेदारी जो सियासी नजरिये से काफी हद तक निर्णायक दिखाई पड़ती है। तभी तो इन्हें अपने साथ जोड़ने या इनके साथ पूरी शिद्दत से जुड़ने के लिये तमाम राजनीतिक पार्टियां हमेशा लालायित रहती हैं। अल्पसंख्यकवाद के नाम पर होनेवाली मुस्लिम सरोकार की सियासी धारा पर निगाह डालें तो भाजपा व शिवसेना सरीखे कुछ गिने-चुने राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों के बीच हमेशा ही खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे तगड़ा अलंबरदार साबित करने की होड़ चलती रही है। केन्द्र में भाजपा के समर्थन से चल रही वीपी सिंह की सरकार को दांव पर लगाकर लालू यादव द्वारा बिहार में लालकृष्ण आडवाणी के रामरथ का अश्वमेघ रोक कर उन्हें गिरफ्तार कराने की बात हो या मुलायम सिंह यादव द्वारा अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलवाने का मामला हो। इसके पीछे सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने की सोच ही थी। यहां तक कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति के तहत ही राजीव गांधी की सरकार ने शाह बानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद से ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार) संरक्षण अधिनियम पारित कराया जबकि मुस्लिम वोटबैंक में कांग्रेस की हिस्सेदारी पुख्ता करने के लिये प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए डाॅ मनमोहन सिंह ने औपचारिक तौर पर यह एलान कर दिया कि देश के तमाम संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का ही है। इसी प्रकार संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना करते हुए सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने के लिये विधानसभा से कानून पारित कराये जाने के मामले हों या गौ-हत्या पर लगी बंदिशों को कमजोर करने की वकालत किये जाने की बात हो। हर मामले में सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का दिल जीतने की सोच ही छिपी रहती है। आखिर संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणालीवाले मुल्क हिदुस्तान में जहां मुसलमानों की कुल आबादी तकरीबन 14 फीसदी से भी अधिक हो और उसमें भी पांच राज्यों में 26.6 फीसदी से लेकर 92.2 फीसदी, सात राज्यों में 11.5 फीसदी से लेकर 19.3 फीसदी और आठ राज्यों में आठ से साढ़े दस फीसदी के बीच मुसलमानों की आबादी हो वहां अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का बोलबाला दिखना स्वाभाविक ही है। दूसरी ओर दलित सरोकार की सियासी धारा के अनवरत प्रवाह की वजह भी आबादी में राष्ट्रीय स्तर पर इनकी 16 फीसदी की हिस्सेदारी ही है। साथ ही संसद और विधानसभाओं में इन्हें 15 फीसदी आरक्षण भी हासिल है। ऐसे में दलित सरोकार की सियासी धारा में डूबने-उतराने और सराबोर होने का सुख भला कौन नहीं उठाना चाहेगा। आंकड़ों की नजर से सैद्धांतिक तौर पर देखा जाये तो इन दोनों धाराओं का संगम सियासत के सर्वोच्च शिखर को भी अपने में समाहित कर लेने में पूरी तरह सक्षम है। तभी तो बहुसंख्यकवाद की राजनीतिक राह पर चलते हुए महज 32 फीसदी वोटों के दम पर केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रहनेवाली भाजपा को पटखनी देने के लिये जितने भी समीकरण टटोले जा रहे हैं उनमें दलित-मुस्लिम धारा का संगम ही सबसे गहरा व विस्तृत दिखाई पड़ रहा है। बाकी, गैर-भाजपावाद के बिहार में सफलतापूर्वक आजमाए जा चुके बेहद मजबूत सैद्धांतिक समीकरण को अन्य सूबों में व्यावहारिक जमीन ही मयस्सर नहीं हो पा रही है जबकि कांग्रेस व वामपंथियों का जो खूंटा कभी सियासी ध्रुवीकरण का केन्द्र हुआ करता था वह मौजूदा हालातों में मजबूत कहारों के कांधे का सहारा लिये बिना खड़े हो पाने की स्थिति में भी नहीं दिख रहा है। ऐसे में ले-देकर समीकरण बचता है दलित व अल्पसंख्यक धारा के सम्मिलन का, जिसमें कागजी व सैद्धांतिक तौर पर तो सत्ता के शिखर से भाजपा को बहा ले जाने की क्षमता स्पष्ट दिख रही है। तभी तो कुछ दिनों से गौ-हत्या व दलित उत्पीड़न के मामलों का परस्पर घालमेल करके ऐसा वातावरण बनाने की चैतरफा कोशिशें जोरों पर जारी हैं जिससे भावनात्मक तौर पर दलितों व अल्पसंख्यकों को करीब लाया जा सके और इन्हें केन्द्र की भाजपानीत राजग सरकार के खिलाफ एकजुट किया जा सके। इसके लिये कभी गुजरात में दलित-मुस्लिम रैली का आयोजन हो रहा है तो कभी जेएनयू में इस सिद्धांत पर व्याख्यान कराया जा रहा है। तस्वीर ऐसी उकेरी जा रही है मानो दलितों व मुस्लिमों के बीच कोई अलगाव-टकराव हो ही ना बल्कि बहुसंख्यकों व खास तौर से सवर्णों के खिलाफ इनका सबकुछ साझा ही हो। लेकिन सियासी समीकरण साधने के लिये इन दोनों धाराओं का संगम कराने का प्रयास कर रही ताकतों ने अव्वल तो 16 फीसदी आबादीवाले अनुसूचित जातियों के उस समूह को एकजुट दलित समझ लिया है जिनके बीच व्यावहारिक धरातर पर कई स्तरों पर परस्पर कट्टर छूआछूत का माहौल आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है और दूसरे सामाजिक स्तर पर होनेवाले सांप्रदायिक टकराव के उन वास्तविक किरदारों की भी अनदेखी की जा रही है जिनके बीच कागजी तौर पर ही मजबूत एकजुटता की कल्पना संभव है वर्ना हकीकत में तो आपसी खून-खराबे का इनका लंबा इतिहास रहा है। ऐसे में सवर्णों से बिदका हुआ वर्ग भले ही कागजी तौर पर अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ने के लिये तैयार दिख रहा हो लेकिन इनके बीच सांप्रदायिक स्तर पर जुड़ाव का कोई साझा आधार तैयार हो पाने की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। यानि अव्वल तो तमाम अनुसूचित जातियों का दलित मंच पर एकजुट हो पाना ही नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और दूसरे तमाम दलितों को हर गली-कूचे व कस्बे-मोहल्ले में उन मुस्लिमों के साथ एकजुट करना भी नामुमकिन सरीखा ही है जिनके बीच तमाम सांप्रदायिक दंगों व हिंसक टकरावों में स्थानीय स्तर पर परस्पर घर-द्वार जलाने-उजाड़ने, माल-असबाब से लेकर आबरू-इज्जत लूटने-छीनने और एक-दूसरे के सखा-संतानों को मारने-काटने व अपंग-अपाहिज बनाने का इतिहास सदियों से लिखा जा रहा है। यहां तक कि तमाम कोशिशों व जद्दोजहद के बाद अगर इन दोनों धाराओं को समेट-बटोरकर न्यूनतम साझा सरोकारों के आधार पर इनका संगम करा भी दिया जाता है तो विरोधी पक्ष की ओर से फेंकी गयी संप्रदायवाद की जलती हुई तीली की मामूली सी चिंगारी भी इन्हें ऐन मौके पर परस्पर इतनी दूर लाकर खड़ा कर सकती है जिसके बारे में कल्पना करने से भी सिहरन पैदा हो जाती है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर दलित-मुस्लिम धारा का संगम कराने के सियासी प्रयासों पर तो यही कहा जा सकता है कि ‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल बहलाने के लिये गालिब ये खयाल अच्छा है।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

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